Book Title: Kundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 40
________________ ४० ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम कारनादि मेद तोहि सूझत मिथ्यात माहि, ऐसो द्वैतभाव ग्यान दृष्टि में न लेखिए। दोऊ महा अंधकप दोऊ कर्मबंध रूप, दुहूं को विनास मोख मारग मैं देखिए ॥ ६॥ सोल तप संजम विरति दान पूजादिक, प्रथया असंजम कषाय विर्षभोग है। कोऊ सुभरूप कोऊ अशुभ स्वरूप मूल वस्तु के विचारत दुविध कर्मरोग है ॥ ऐसी बंधपद्धति बखानी वीतराग देव, . प्रातम धरम मैं करम त्याग-जोग है। भौ-जल तरैया राग-द्वेष को हरैया महा मोख को करैया एक सुद्ध उपयोग है ॥७॥ फरम सुभासुभ दोइ, पुद्गलपिंड विभाव मल । इनसौं मुकति न होइ, नहिं केवल पद पाइए ॥११॥ शुभाशुभभावरूप पुण्य-पापभाव भावास्रव हैं एवं उनके निमित्त से पौद्गलिक कार्मारणवर्गणाओं का पुण्य-पाप प्रकृतियोंरूप परिणमित होना द्रव्यास्रव है। भगवान आत्मा (जीवतत्त्व) इन दोनों ही आस्रवों से भिन्न है । अज्ञानी जीव पुण्य और पाप में अच्छे-बुरे का भेद कर पुण्य को अपनाना चाहता है, उपादेय मानता है, मोक्षमार्ग जानता है; जबकि आस्रवतत्त्व होने से पाप के समान पुण्यतत्त्व भी हेय है, उपादेय नहीं; संसारमार्ग है, मोक्षमार्ग नहीं। यही भेदज्ञान कराना पुण्य-पाप अधिकार का मूल प्रयोजन है । ____ ज्ञानावरणादि कर्मों के बंध के कारण होने से मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग आस्रव हैं । ये मिथ्यात्वादि प्रास्रव भावानव और द्रव्यास्रव के भेद से दो प्रकार के हैं । मिथ्यात्व, अविरति और कषाय तो मोह-राग-द्वेषरूप ही हैं; योग मन-वचन-काय की चंचलता एवं उसके निमित्त से प्रात्मप्रदेशों में होनेवाले कंपन को कहते हैं । आत्मप्रदेशों में होनेवाला कंपन भावयोग है और मन-वचन-काय की चंचलता द्रव्ययोग है । इसीप्रकार परपदार्थों में एकत्व-ममत्व-कर्तृत्व

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