Book Title: Kundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 43
________________ समयसार ] [ ४३ संवररूप धर्म की उत्पत्ति का मूल कारण भेदविज्ञान है। यही कारण है कि इस ग्रन्थराज में प्रारंभ से ही पर और विकारों से भेदविज्ञान कराते आ रहे हैं। भेदविज्ञान की भावना निरन्तर भाते रहने की प्रेरणा देते हुए प्राचार्य अमृतचंद्र लिखते हैं : "संपद्यते संवर एष साक्षाच्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलंभात् । स भेदविज्ञानत एव तस्मात् तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम् ॥ भावयेद् मेवविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया) तावद्यावत्पराच्चयुत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठिते । भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाः ये किल केचन । अस्येवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥' यह साक्षात् संवर शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि (प्रात्मानुभव) से होता है और शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि भेदविज्ञान से ही होती है। अतः यह भेदविज्ञान अत्यन्त भाने योग्य है। यह भेदविज्ञान तबतक अविच्छिन्न धारा से भाना चाहिए, जबतक कि ज्ञान परभावों से छूटकर ज्ञान में ही स्थिर न हो जावे; क्योंकि आजतक जितने भी सिद्ध हुए हैं, वे सब भेदविज्ञान से ही हुए हैं और जितने भी जीव कर्मबन्धन में बंधे हुए हैं, वे सब भेदविज्ञान के प्रभाव से ही बँधे हुए हैं।" भेदविज्ञान की महिमा और फल बताते हुए कविवर पंडित बनारसीदासजी लिखते हैं : "प्रगटि भेदविग्यान, आपगुन परगुन जाने । पर परनति परित्याग, सुद्ध अनुभौ थिति ठाने । करि अनुभौ अभ्यास, सहज संवर परगास । प्रास्त्रवद्वार निरोधि, करमधन-तिमिर विनास ॥ छय करि विभाव समभाव भजि, निरविकलप निजपद गहै। निर्मल विसुद्धि सासुत सुथिर, परम प्रतीन्द्रिय सुख लहै ॥२॥ प्रात्मख्याति, कलश १२६ से १३१ २ समयसार नाटक, संवरद्वार, छन्द ११

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