Book Title: Kundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 41
________________ समयसार ] [ ४१ भोक्तृत्वबुद्धि भावमिथ्यात्व है और उसके निमित्त से कार्मारणवर्गणा का मिथ्यात्वकर्मरूप परिणमित होना द्रव्यमिथ्यात्व है। इसीप्रकार अविरति और कषाय को भी समझ लेना चाहिए। उक्त सम्पूर्ण प्रास्रवभावों से भगवान आत्मा (जीवतत्त्व) अत्यन्त भिन्न है। प्रास्रवभावों से भिन्न निज भगवान आत्मा को ही निज जानने-माननेवाले ज्ञानीजनों को मिथ्यात्वसंबंधी आस्रव नहीं होते- इसकारण उन्हें निरास्रव कहा जाता है । कहा भी है : "जो दरवास्रव रूप न होई । जहं भावानव भाव न कोई। जाको वशा ग्यानमय लहिए। तो ग्यातार निरालव कहिए ॥" इस अधिकार में सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा को निराम्रव सिद्ध किया गया है एवं इस संदर्भ में उठनेवाली शंका-आशंकाओं का निराकरण भी किया गया है । समयसार नाटक के तत्संबंधी कतिपय छन्द इसप्रकार हैं :"प्रश्नः-ज्यों जग मैं विधरं मतिमंद, सुछन्द सवा वरत बुध तसो। चंचल चित्त असंजित वैन, सरीर-सनेह जथावत जैसो।। भौग संजोग परिग्रह संग्रह, मोह विलास कर जहं ऐसो। पूछत सिष्य प्राचारज सौ यह, सम्यक्वंत निराम्रव कैसो ॥ उत्तर:-पूरव अवस्था जे करम-बंध कीने प्रब, तेई उदै आइ नाना भांति रस देत हैं। केई सुभ साता केई असुभ असाता रूप, दुहूं सौं न राग न विरोध समचेत हैं । जथाजोग क्रिया करें फल की न इच्छा धरै, जीवन-मुकति को बिरद गहि लेत हैं। यातें ग्यानवंत कों न आस्रव कहत कोऊ, मुद्धता सौं न्यारे भये सुद्धता समेत हैं ॥३" समयसार नाटक, मानवद्वार, छन्द ४ २ समयसार नाटक, प्रास्रवद्वार, छन्द ६ समयसार नाटक,,प्रास्रवद्वार, छन्द ७

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