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समयसार ]
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श्रात्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष के भाव आस्रवभाव हैं । इस कर्त्ता - कर्म अधिकार का प्रारंभ ही आत्मा और प्रास्रवों के बीच भेदविज्ञान से होता है । जब आत्मा भिन्न है और आस्रव भिन्न हैं तो फिर प्रस्रवभावों का कर्त्ता भोक्ता भगवान आत्मा कैसे हो सकता है ? जिनागम में जहाँ भी आत्मा को पर का या विकार का कर्त्ता भोक्ता कहा गया है, उसे प्रयोजन विशेष से किया गया व्यवहारनय का कथन समझना चाहिए ।
आचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में वस्तुस्थिति तो यह है :" श्रात्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् । परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥ १
श्रात्मा ज्ञानस्वरूप ही है, स्वयं ज्ञान ही है, वह ज्ञान के अतिरिक्त और क्या करे ? आत्मा परभावों का कर्त्ता है - ऐसा मानना कहना व्यवहार - विमुग्धों का मोह ही है, अज्ञान ही है ।"
कर्ता - कर्म की स्थिति स्पष्ट करते हुए समयसार नाटक के कर्ताकर्म अधिकार में कविवर बनारसीदासजी लिखते हैं
:
"ग्यानभाव ग्यानी करं, अग्यानी अग्यान ।
दर्वकर्म पुदगल करें, यह निहचं परदान ॥ १७ ॥
आत्मा में उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप ज्ञानभावों का कर्त्ता ज्ञानी आत्मा है, मोह-राग-द्वेष आदि अज्ञानभावों का कर्त्ता अज्ञानी आत्मा है और ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों, शरीरादि नोकर्मो का कर्त्ता पुद्गल द्रव्य ही है ।"
यद्यपि युद्ध योद्धाओं द्वारा ही किया जाता है, तथापि व्यवहार में यही कहा जाता है कि युद्ध राजा ने किया है। जीव को ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्त्ता कहना - इसीप्रकार का व्यवहार है । जिस प्रकार प्रजा के दोष-गुरणों का उत्पादक राजा को कहा जाता है, उसी प्रकार पुद्गल द्रव्य के परिणमन का कर्त्ता जीव को कहा जाता
१ आत्मख्याति, कलश ६२