Book Title: Kundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 36
________________ ३६ ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम से अभिन्न निज भगवान आत्मा की पहिचान कराना इस अधिकार का मूल प्रयोजन है। जोवाजीवाधिकार के अध्ययन से स्व और पर की भिन्नता अत्यन्त स्पष्ट हो जाने पर भी जबतक यह आत्मा स्वयं को कर्ताभोक्ता मानता रहता है, तबतक वास्तविक भेद-विज्ञान उदित नहीं होता । यही कारण है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जीवाजोवाधिकार के तुरन्त बाद कर्ता-कर्म अधिकार लिखना आवश्यक समझा। पर के कर्तृत्व के बोझ से दबा प्रात्मा न तो स्वतंत्र ही हो सकता है और न उसमें स्वावलम्बन का भाव ही जागत हो सकता है। यदि एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य के कार्यों का कर्ता-भोक्ता स्वीकार किया जाता है तो फिर प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है । इस बात को कर्ता-कर्म अधिकार में बड़ी ही स्पष्टता से समझाया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द तो साफ-साफ कहते हैं :"कम्मस्स य परिणाम पोकम्मस्स य तहेव परिणामं । ण करेइ एयमावा जो जाणवि सो हवदि गाणी ॥' जो आत्मा क्रोधादि भावकों, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों एव शरीरादि नोकर्मों का कर्ता नहीं होता, उन्हें मात्र जानता ही है, वही वास्तविक ज्ञानी है।" यदि हम गहराई से विचार कर तो यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्यों को करता है, उनके स्वतंत्र परिणमन में हस्तक्षेप करता है, उन्हें भोगता है तो फिर प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता का क्या अर्थ शेष रह जाता है ? इस कर्ताकर्म अधिकार को उक्त गाथा में तो यहाँ तक कहा गया है कि पर के लक्ष्य से प्रात्मा में उत्पन्न होने वाले मोह-राग-द्वेष आदि विकारी भावों का कर्ता भी ज्ञानी नहीं होता, वह तो उन्हें भी मात्र जानता ही है। ' समयसार, गाथा ७५

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