Book Title: Kundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 14
________________ १४ ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम दूसरी (६२वीं) गाथा जहाँ यह बताती है कि वे भद्रबाहु ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो के ज्ञाता पंचम श्रुतकेवली ही हैं, वहाँ यह भी बताती है कि वे कुन्दकुन्द के गमकगुरु (परम्परागुरु) हैं, साक्षात् गुरु नहीं । इसी प्रकार का भाव समयसार की प्रथम गाथा में भी प्राप्त होता है, जो कि इसप्रकार है :: - "वंदित्तु सम्वसिद्धे धुवमचलमरणोवमं गदि पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिरगमो सुदकेवली भरिएदं ॥ ध्रुव, अचल और अनुपम गति को प्राप्त सर्वसिद्धों को वंदन करके श्रुतकेवली द्वारा कथित समयप्राभृत को कहूँगा ।" इसप्रकार तो उन्हें भगवान महावीर का भी शिष्य कहा जा सकता है; क्योंकि वे भगवान महावीर की शासन परम्परा के श्राचार्य हैं । इस संदर्भ में दर्शनसार की निम्नलिखित गाथा पर भी ध्यान देना चाहिए : "जइ पउमरविणाहो सीमंधरसामिविव्य राखे । रण विवोह तो समरगा कहं सुमग्गं पयाांति ॥ यदि सीमंधरस्वामी ( महाविदेह में विद्यमान तीर्थंकरदेव ) से प्राप्त हुए दिव्यज्ञान द्वारा श्री पद्मनन्दिनाथ ( श्री कुन्दकुन्दाचार्य) ने बोध नहीं दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे प्राप्त करते ?" क्या इस गाथा के आधार पर उन्हें सीमन्धर भगवान का शिष्य कहा जाय ? यहाँ प्रश्न इस बात का नहीं है कि उन्हें कहीं-कहीं से ज्ञान प्राप्त हुआ था, वस्तुतः प्रश्न तो यह है कि उनके दीक्षागुरु कौन थे, उन्हें प्राचार्यपद किससे प्राप्त हुआ था ? जयसेनाचार्यदेव ने इस ग्रन्थ की टीका में उन्हें कुमारनन्दी सिद्धान्तदेव का शिष्य बताया है और नन्दिसंघ की पट्टावली' में जिनचन्द्र का शिष्य बताया गया है; किन्तु इन कुमारनन्दी और १ जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृष्ठ ७८ 1

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