Book Title: Kasaypahudam Part 11 Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh View full book textPage 8
________________ [7] उदीरणा उसका बाह्य निमित्त कहा जाता है और जहाँ कर्मोदय उदीरणाको कार्यरूपसे विवक्षा होती है वहाँ उसका अविनाभावी जीवपरिणाम तथा यथासम्भव अन्य बाह्य सामग्री उसका बाह्य निमित्त कहा जाता है । यह बात उक्त उल्लेखसे तो स्पष्ट है ही, कषाय- प्राभृतकी गाथा ५९ 'कदि आवलियं पवेसेइ' इत्यादिके 'खेत्तभवकाल-पोग्गल' इत्यादि वचनसे भी स्पष्ट है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जहाँ भी न्याय - शास्त्र में कार्य-कारणके मध्य क्रमभावी अविनाभाव सम्बन्धका उल्लेख किया गया है वहाँ वह उपादन उपादेयभावको ध्यान में रखकर ही किया गया है, बाह्य निमित्त नैमित्तिक भावको ध्यानमें रखकर नहीं, क्योंकि बाह्य निमित्त नैमित्तिकभावका उल्लेख उन एकाधिक द्रव्योंकी ऐसी विवक्षित पर्यायोंमें किया जाता है जिनका एक कालमें होनेका नियम है । जैसे क्रोध कर्मका उदय और क्रोध भाव एक ही कालमें होते हैं, इसलिए क्रोध-कर्मके उदयको बाह्य निमित्त कहते हैं और क्रोध भावको उसका नैमित्तिक । इसी प्रकार सत्र र्वजानना चाहिए । अनुभाग फलदान शक्तिका दूसरा नाम है। उदय उदीरणाकालके पूर्वतक यह द्रव्यरूपमें रहती है । किन्तु उदय उदीरणाकालके प्राप्त होते ही वह पर्यायरूपसे प्रगट हो जाती है जो पर्यायगत अपने-अपने, अविभागप्रतिच्छेदों के द्वारा परिलक्षित होती है । यहाँ द्रव्यशक्ति पदसे मात्र त्रैकालिक योग्यताको ग्रहण न कर योग और कषायको निमित्तकर प्रतिसमय कर्मबन्धके कालमें प्राप्त होनेवाली ऐसी योग्यता ली गई है जो यथायोग्य उत्तरकालमें फलदान सामर्थ्य से सम्पन्न होती है । प्रकृतमें उदीरणाका प्रकरण होनेसे यहाँ विचार यह करना है कि स्पर्धकगत उस योग्यता में से किस योग्यता सम्पन्न स्पर्धकोंका अपकर्षण होता है और किन स्पर्धकोंका नहीं होता ? इसी प्रश्नका समाधान करते हुए यहाँ पर बतलाया है कि प्रथम स्पर्धक से लेकर जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाप्रमाण अनन्त स्पर्धकोंका अपकर्षण नहीं होता । इसके आगे अन्य जितने भी स्पर्धक हैं उनका अपकर्षण होनेमें कोई बाधा नहीं है । यहाँ अपकर्षणके योग्य जो अनुभाग अपकर्षित होकर अन्य जिस अनुभागरूप परिणम जाता है उसकी निक्षेप संज्ञा है और अपकर्षणके योग्य अनुभाग तथा निक्षेपरूप अनुभागके मध्य जो अनुभाग रहता है उसकी अतिस्थापना संज्ञा है । २. मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणा यह अर्थपद है । इसके अनुसार अनुभाग उदीरणा दो प्रकारकी है— मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणा और उत्तरप्रकृति अनुभाग उदीरणा । यहाँ सर्व प्रथम मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणाका अनुगम करते समय ये तेईस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। संज्ञा, उत्कृष्ट उदीरणा, अनुत्कृष्ट उदीरणा, जघन्य उदीरणा, अजघन्य उदीरणा, सर्व उदीरणा, नोसर्व उदीरणा, सादि उदीरणा, अनादि उदीरणा, ध्रुव उदीरणा, अध्रुव उदीरणा, स्वामित्त्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व तथा भुजगार, पदनिक्षेप वृद्धि और स्थान । मोहनीय कर्म के प्रत्येक अनुभागकी निश्चित संज्ञा है यह बतलानेके लिए संज्ञा अनुयोगद्वारका निर्देश. किया है । वह संज्ञा दो प्रकारकी है-धातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । उनमें से प्रत्येक जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो दो प्रकारकी है । उनमेंसे अपने अवान्तर भेदोंके साथ घातिसंज्ञाका विचार करते हुए बतलाया है कि सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नियमसे सर्वघाति है तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति और देशघाति दोनों प्रकारकी है । इसी प्रकार मोहनीयकी जघन्य अनुभाग उदीरणा नियमसे देशघाति है । और अजघन्य अनुभाग उदीरणा देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारको है । स्थानसंज्ञाका निरूपण करते हुए बतलाया है कि सामान्यसे मोहनीय की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नियमसे चतुःस्थानीय है तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय है, त्रिस्थानीय है, द्विस्थानीय है और एक स्थानीय भी है। इसी प्रकार मोहनीयकी जघन्य अनुभाग उदीरणा नियमसे एक स्थानीय है तथा अजघन्य अनुभागPage Navigation
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