Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 16
________________ ( ११ ) पदनिक्षेप - भुजगारविशेषको पदनिक्षेप कहते हैं 1 इस अधिकार में उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि, जघन्य वृद्धि और जघन्य हानि तथा अवस्थितपद इन सबका श्रश्रय लेकर समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारोंके द्वारा मूल और उत्तरप्रकृतियोंके प्रदेशसत्कर्मका विचार किया गया 1 वृद्धि — पदनिक्षेपविशेषको वृद्धि कहते हैं । इस अधिकार में यथासम्भव वृद्धि और हानिके अवान्तर भेदों तथा यथासम्भव अवक्तव्यविभक्ति और अवस्थितविभक्तिका आश्रय लेकर समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन तेरह अधिकारोंके द्वारा मूल और उत्तर प्रकृतियोंके प्रदेशसत्कर्मका विचार किया गया है । सत्कर्मस्थान—मूल और उत्तर प्रकृतियोंके प्रदेशसत्कर्मस्थान कितने हैं इसका निर्देश करते हुए मूलमें बतलाया है कि उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका जिस प्रकार कथन किया है उसी प्रकार प्रदेशसत्कर्मंस्थानोंका भी कथन कर लेना चाहिये। फिर भी विशेषताका निर्देश करते हुए प्रकृत में प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व ये तीन अधिकार उपयोगी बतलाये हैं । झीनाझीनचूलिका पहले उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका विस्तार के साथ विचार करते समय यह बतला आये हैं कि जो गुणितकर्माशिक जीव उत्कर्षण द्वारा अधिक से अधिक प्रदेशोंका सञ्चय करता है उसके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है और जो क्षपितकमांशिक जीव अपकर्षण द्वारा कर्मप्रदेशों को कमसे कम कर देता है उसके जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए यहाँपर यह प्रश्न उठता है कि क्या सब कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण या अपकर्षण होना सम्भव है, बस इसी प्रश्नका समाधान करनेके लिए यह झीनाकीन नामक चूलिका अधिकार अलग से कहा गया है | साथ ही इसमें संक्रमण और उदयकी अपेक्षा भी इसका विचार किया गया है । इस सबका विचार यहाँपर चार अधिकारोंका आश्रय लेकर किया गया है । वे अधिकार ये हैंसमुत्कीर्तना, प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व | समुत्कीर्तना-इस अधिकार में अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदयसे मीन और अझीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओं के अस्तित्वकी सूचना मात्र दी गई है । प्रकृत में झीन शब्दका अर्थ रहित और अमीन शब्दका अर्थं सहित है । तदनुसार जिन कम्परमाणुओंका अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदय होना सम्भव नहीं है वे अपकर्ष, उत्कर्षण, संक्रमण और उ झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु माने गये हैं । और जिन कर्मपरमाणुओं के ये अपकर्षण दि सम्भव हैं वे इनसे अमीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु माने गये हैं । प्ररूपणा — इस अधिकार में अपकर्षण आदिसे कीन और अमीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु कौन हैं इसका विस्तार के साथ विचार किया गया है। उसमें भी सर्वप्रथम अपकर्षणकी अपेक्षा विचार करते हुए बतलाया गया है कि उदयावलिके भीतर स्थित जितने कर्मपरमाणु हैं वे सब अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले और शेष सब कर्मपरमाणु अपकर्षणसे अमीन स्थितिवाले हैं । तात्पर्य यह है कि उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओं का अपकर्षण न होकर वे क्रमसे यथावस्थित रहते हुए निर्जराको प्राप्त होते हैं, इसलिए वे अपकर्षण के अयोग्य होनेके कारण अपकर्षण से झीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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