Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 7
________________ (vii) सूक्ष्म भाव-कर्म का सरल रीति से कथन करना सम्भव हो जाता है। वास्तव में यहाँ इस द्रव्य-कर्म को बताना इष्ट नहीं है, न वह कुछ दुःख ही देता है। उस पर से जीव के भाव कर्म को दर्शाना इष्ट है और वह ही दुःख सुख में हेतु होता है। द्रव्य-कर्म जीव के भावों को मापने का एक यन्त्र मात्र है। अंतः उस नाम के कर्म से उस प्रकार के भाव को ही ग्रहण करना चाहिये । पूर्व - सञ्चित संस्कार या कर्म-बन्ध से तदनुकूल गति इन्द्रिय व काय आदि मिलते हैं, जिससे प्रेरित हो कर जीव पुनः वही भाव या कर्म करता है। उससे फिर संस्कार तथा कर्म-बन्ध और उससे फिर गति आदि। यह चक्र अनादि से चला आ रहा है और चलता रहेगा। अब प्रश्न यह होता है कि यह चक्र कैसे रुके। इसका उपाय कर्म-सिद्धान्त बताता है । जड़ कर्म जीव को बल पूर्वक वैसा भाव कराता हो, ऐसा नहीं है । 'वह कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है या करने में निमित्त होता है जिसमें कि जीव को प्राय: वैसा भाव करने के लिये बाध्य होना पड़ता है । संस्कारका बल भी सदैव समान नहीं रहता, तीव्र तथा मन्द होता रहता है। तीव्र शक्ति से युक्त कर्म तथा संस्कार के उदय में भले ही जीव को विवश तदनुकूल भाव करने पड़ें, परन्तु मन्द उदय में यदि सद्गुरु that शरण प्राप्त हो जाय और उनका उपदेश सुने तो तत्त्व चिन्तन की दिशा में झुककर कदाचिर अहंकार से निवृत्त होना उसके लिए सम्भव हो सकता है। ऐसी दशा उत्पन्न हो जाने पर पूर्व संस्कारों का बल उत्तरोत्तर ढीला पड़ता जाता है और उनके स्थान पर कुछ नवीन संस्कारों का निर्माण होने लग जाता है। इस प्रकार संस्कारों की और उनके साथ-साथ कर्मों की दिशा बदल जाती है। अशान्ति-जनक संस्कारों की गति रुद्ध हो जाती है । इसे 'संवर' कहते हैं। शान्तिजनक नवीन संस्कारों का बल उत्तरोत्तर बढ़ने लगता है जिससे पुरातन संस्कारों की शक्ति क्षीण होने लगती है। धीरे-धीरे वे मृत प्रायः हो जाते हैं । इसको निर्जरा कहते हैं। यह समस्त प्रक्रिया आगम में अपकर्षण उत्कर्षण संक्रमण उदय उदीरणा उपशम क्षय आदि विभिन्न नामों से विस्तार सहित बताई गई है । 1 इसी क्रम से धीरे-धीरे आगे चलने पर साधक उन नवीन संस्कारों को भी क्षीण कर देता है और निर्विकल्प समाधि में स्थित हो जाता है, अर्थात् अन्तरंग तथा बहिरंग सरस्त मानसिक व्यापार को रोककर समता भूमि में प्रवेश कर जाता है। तब उसके हृदय में उस ज्ञान मूर्ति के दिव्य दर्शन होते हैं जिसमें कि तीन लोक तीन काल हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष हो उठते हैं। जीव की यह दशा 'जीवन्मुक्त' कहलाती है । कार- विहीन हो जाने पर कुछ काल पश्चात् कायिक तथा वाचिक क्रियायें भी स्वत: रुक जाती हैं और यह स्थूल शरीर भी किनारा कर जाता है। अब वह महाभाग्य 'विदेह मुक्त' होकर सदा के लिए चिदानन्दघन में लीन हो जाता है । साधक के मार्ग में

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