Book Title: Kalyanmandir Stotra
Author(s): Kumudchandra Acharya, Kamalkumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 6
________________ नेष्टं विहन्तु शुभभाव-माण-रसप्रकर्षः प्रभरतरायः । त्वरकामधारेण गुणानुरागाभुत्याविरिष्टार्थकवाहबादेः ।। 'परिहन्तादि परमेष्ठियों के गुणों में भक्तिपूर्वक किया गाम काराधि प्रमोद कल को देता है। साथ ही उससे पैदा हुए शुभ परिणामों के सामर्थ्य से अन्तरायकर्म ( पाप कर्म) निर्वीर्य होकर नष्ट हो जाता है और वह इष्ट का विधात करने में समर्थ नहीं होता।' इसी स्तोत्र में और भी एक जगह कहा गया है: हातिनि त्वयि विभो ! शिथिलोभवन्ति जन्तोः क्षणेन निविडा मपि कभवन्या: । सद्यो भुखङ्गममया इ मध्यभाग, .. मभ्यागते वशिखण्डिन घन्दनरम ।। 'हे विभो ! जिस प्रकार चन्दन के वन में मयूर (मोर) के पहुंचते ही वृक्षों से लिपटे सर्प तत्काल उनसे अलग हो जाते हैं उसी प्रकार भक्त के हृदय में आपके विगजमान होने (स्मरणादि किये जान) पर अत्यात गाढ़ प्रष्ट कर्मों के बन्धन भी क्षण भर में ही ढीले पड़ जाते हैं।' इतना ही नहीं बल्कि वह परमात्मदशा को भी प्राप्त हो जाता है । जैसा कि इसी स्तोत्र के निम्न पद्म में प्रतिपादन किया गया है: ध्यानाजिनेश भवतो भबिनः क्षणेन, देह विहाय परमात्मशां ग्रन्ति । सीवानलादुपसभावमपास्य लोके, चामीकर त्वमपिरावि धातुमेदाः ।। 'हे जिनेश ! जिस प्रकार धातुविशेष (अशुद्ध स्वर्णादि) अग्नि की तेज अचि से अपने पाषाणरूप अशुद्धभाव को छोड़कर शीघ्र ही सोना हो जाता है उसी प्रकार प्रापके ..यान

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