Book Title: Kalyanmandir Stotra
Author(s): Kumudchandra Acharya, Kamalkumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 4
________________ - -- J - - - - ध्यान केन्द्रित करता है जहाँ दुःख नहीं है और न दुःख के कारण राग, द्वेष, प्रज्ञानादि हैं। इस तलाश में उनकी दृष्टि वीतराग मात्मा में जाकर स्थिर हो जाती है और उसके दुःखमोचनादि गुणों में अनुराग करने लगती है। इस गुणानुराग को ही भक्ति कहते हैं । श्रद्धा, प्रार्थना, स्तुति, विनय, प्रादर, नमस्कार, पाराधना प्रादि ये सब उसी भक्ति के रूप हैं और भक्ति का यही प्रयोजन प्रथवा उद्देश्य है कि स्तुत्य के बे दुःलरहिता दिगुण भक्त को प्राप्त हो जाय- वह भी उन जैसा बन जाय । इसी बात को प्रस्तुत स्तोत्र में भी निम्न प्रकार बतलाया है - * माष दुःखिजना बन्सल । हे प्रारब्ध!, कापण्यपुग्यबसते ! अशिमा रेग्य ! भवस्या नते मयि महेश दयो विषाय, दुखा.रोलन .. तत्परता विहि ।। 'हे नाथ ! प्राप दुखी जनों के वत्सल हैं, शरणागतों को शरण देने वाले हैं, परम कारुणिक हैं और इन्द्रिय विजेसामों में श्रेष्ठ हैं, मुझ भक्त को भी दया कर आप दुःख और दुःखदायी प्रज्ञानादि को नाश करने वाला बनायें।' यही समन्तभद्र स्वामी ने, जिन्हें विद्वानों द्वारा 'माद्य स्तुतिकार' कहे जाने का गौरव प्राप्त है, स्वयम्भूस्तोत्र में शान्तिजिन का स्तवन करते हुए कहा है: पोष - शाम्या विहितारमान्ति: गान्ते विधाता शरणं गतानाम् । भूया भवालेश...... बोपशान्ये, शान्ति fanो मे मावान् रमः ।।

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