Book Title: Kalyanmandir Stotra
Author(s): Kumudchandra Acharya, Kamalkumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 5
________________ ( ७ ) 'है शान्तिजिन ! श्रापने अपने दोषों को शान्त करके श्रात्मशान्ति प्राप्त की है तथा जो आपकी शरण में श्रावे उन्हें भी प्रापने शान्ति प्रदान की है। अतः आप मेरे लिये भी संसार के दुःखों तथा भयों थमवा संसार के दुःखों के भयों को शान्त (दूर) करने में शरण हों ।' - यही कारण है कि स्तुति में भक्त यह कामना करता है कि 'हे भगवन ! मेरे दुख का क्षय हो, कर्म का नाश हो, प्रासं रौद्र ध्यान रहित सम्यक मरण हो और मुझे बोल ( सम्यग्दर्शनादि का लाभ हो । श्राप तीनो जगत के बन्धु हैं, इसलिये है जिमेन्द्र ! मैं आपकी गरण को प्राप्त हुआ हूं। 1 " 1 जैसा कि एक प्राचीन निम्नगाथा में बतलाया गया हैं। युवल-खो कम्म सो समाहिमरणं च बोहिलाहो प । मम होउ तिजगबंधव ! सव जिनवर ! परण-सरगम ।। यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि वीतरागदेव की उपासना अथवा भक्ति से क्या दुःखों मीर दुःख के कारणों का अभाव सम्भव है ? जब वे वीतरागी हैं तो दूसरे के दु:म्बादि को हूर करने में ये समर्थ कैसे हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वीतरागदेव विशुद्ध एक पवित्र मात्मा हैं उनके स्मराणादि से आत्मा में शुभ परिणाम होते हैं और उन शुभ परिणामों से पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन तथा पाप प्रकृतियों का ह्रास होता है और उस हालत में के पाप प्रकृतियों भक्त के अभीष्ट दुःखों तथा दुःख के कारणों के प्रभाव में बाधक नहीं हो पातीं- उसे उसके अभीष्टफल की प्राप्ति अवश्य हो जाती है। इसी बात को एक निम्नपद्य में बहुत ही स्पष्टता के साथ में बतलाया गया है -

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