Book Title: Kalyankarak
Author(s): Ugradityacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govind Raoji Doshi Solapur

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Page 14
________________ (?) अवयवोंसे बने हुए पचन श्वसनादि मंडलो में त्रिधातु रहते हैं । अत्रयवोमें, उनके घटकोमें, घटक परमाणु त्रिधातुवोंकी व्याप्ति रहती है । इसलिए उनको व्यापी कहा है । व्यापी रहते हुए भी उनके विशिष्ट स्थान व कार्य हैं । सचेतन, सेंद्रिय, अतींद्रिय, अतिसूक्ष्म व बहुत परमाणुत्रों के समूह से इस जीवंत देह का निर्माण होता है । परमाणु अतिसूक्ष्म होकर इस शरीर में अब्जावधिप्रमाण से रहते हैं । एक गणितशास्त्रकारने इनकी संख्या को तीस अब्जप्रमाण में दिया हैं । शरीर के सर्व व्यापार इन परमाणुओंके कारण से होते हैं । इन्हीं परमाणुओंसे शरीर के अनेक अवयव भी बनते हैं । यकृत, प्लीहा, उन्दुक, ग्रहणी, हृदय, फुप्फुस, सहस्रार, नाडी आदि का अंतिम भाग इन परमाणुओंके स्वरूप में हैं । अनेक परमाणुओं से अवयत्रोंका घटक बनता है । घटकोंसे अवयव, अवयवोंसे मंडल बनते हैं । वातमंडल, श्वसन, पचन, रुधिराभिसरण, उत्सर्ग ये शरीर के मुख्य मंडल हैं । परमाणुओं में रहने वाले त्रिधातु अतिसूक्ष्म और अवयवांतर्गत, वातमंडलांतर्गत त्रिधातु सूक्ष्म रहते हैं तो भी उस के स्थूलव्यापार के त्रिधातु स्थूलस्वरूप के रहते हैं । उदाहरण के लिए पचन व्यापार आमाशय, पक्काशय, ग्रहणी, यकृतादि अवयवोंमें होता है । आमाशय, पक्काशय गैरह में रहनेवाला पाचकपित्त स्थूलस्वरूप का रहता है । वह अपनेको प्रत्यक्ष देखने में आसकता है । वह विस्र, सर, द्रव, आम्ल आदि गुणोंसे देखने में आता है । इस पित्त का अन्न के साथ संयोग होता है। और अन्न के साथ उसकी संयोग- मूर्च्छना होकर पचन होता है । पचन के बाद सार - किट्टपृथक्त्व होता है । सारभाग का पक्काशय में शोषण होता है । सार - किड विभजन, सारसंशोषण यह कार्य पित्त के कारण से होते हैं | इतर रसादि प्रतिमूल धातुओंके समान पित्त कफादिकोंका भी पोषण होना आवश्यक है । वह पोषण भी पचनव्यापार में होता है । पित्त का उदीरण होकर पित्तस्राव होता रहता है | स्राव होने के पहिले पित्तादि धातु उन उन घटकोंमें सूक्ष्मरूप से रहते हैं । सूक्ष्मव्यापार में वे दीख नहीं सकते । बाहर उनका स्राव होनेके बाद वे देखने में आते हैं । अतः पित्त पित्तका स्थूलरूप, वित्तोत्पादक घटकस्थितपित्त सूक्ष्मरूप और परमाण्वंतर्गतपित्त अतिसूक्ष्मस्वरूप का रहता है, यह सिद्ध हुआ । भुंक्तमात्र अन्न के षड्रसोंके पाक से पाचकपित्त का उदीरण होता है । आमाशय में पाचकपित्त व क्लेदककफ का उदीरण होकर वह धीरे धीरे अन्न में मिल जाते हैं । व अन्न का विपाक होता है । अन्नपचन का क्रम करीब करीब चार घंटे से छह घंटे १ शरीरावयवास्तु खलु परमाणुभेदेनापरिसंख्येया भवति, अतिबहुत्बादतिसूक्ष्मत्वादतींद्वियत्वाच्च ॥ चरकशरीर ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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