Book Title: Kalyan 1958 03 04 Ank 01 02
Author(s): Somchand D Shah
Publisher: Kalyan Prakashan Mandir

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Page 26
________________ : २८ : गांगांशी तीर्थ : ॥ ढाल दूसरी ॥ मूलनायक प्रतिमा वाली, परिकर अति अभिराम ॥ सुन्दर रूप सुहामणि, श्री पद्मप्रभु तसु नाम ॥ १॥ श्री पदमप्रभ पूजियां, पातिक दूर पलाय ॥ नय मूर्ति निरखतां, समकित निर्मल थाय ॥ २ ॥ आर्यसुहस्ती सूरीश्वरो, आगम श्रुत व्यवहार ॥ संयम कवणी दियो, भोजन विविध प्रकार ॥३॥ उज्जैनी नगरी धणी, ते थयो सम्प्रति राय ॥ जातिस्मरण जाणियो, ये ऋद्धि गुरु पसाय ॥४॥ वी तिण गुरु प्रतिबोधियो, थयो श्रावक सुविचार || मुनिवर रूप कराविया, अनार्य देश विहार ॥५॥ पुण्य उदय प्रगट्यो घणो, साध्या भरत त्रिखण्ड || जिण पृथ्वी जिनमंदिरे, मण्डित करी अखण्ड ॥ ६ ॥ बी सय तीडोत्तर वीरं थी, संवत सबल पंडूर ॥ पद्मप्रभ प्रतिष्ठिया, आर्यसुहस्ती सूर ॥ ७॥ महा ती शुक्ल अष्टमी, शुभ मुहूर्त रविवार ॥ लिपि प्रतिमा पूठे लिखी, ते वाची सुविचार ॥ ८॥ १ - - सम्राट् संप्रतिका होना और प्रतिष्ठाका समय बतलाते हुये कविवर ने कहा है कि आचार्य सुहस्तसूरिने दुष्काल में भेक भिक्षुकको दीक्षा देके इच्छित आहार करवाया था, समयान्तरमें वह काल कर कुणांलकी राणी कांचनमालाकी कुक्षिसे सम्राट् सम्प्रति हुआ और जब वह उज्जैन में राज करता था तब रथयात्राकी सवारीके साथ आचार्य सुहस्ती उनकी नजर में आये । विचार करते ही राजाको जातिस्मरण ज्ञान हो आया और सब राजऋद्धि गुरुकृपासे मिली जान गुरु महाराजके चरणोंमें आकर राज ले लेनेकी अर्ज की, पर निस्पृही गुरुराजको लेकर क्या करते ? उन्होने यथोचित धर्मवृद्धिका उपदेश दे उसको जैन एवं श्रावक बनाया । उज्जैन में जैनोंकी भेक विराट सभा की, आचार्य सुहस्ती आदि बहुत से जैन श्रमण वहां अकत्र हुअ | अन्यान्य कार्योंके साथ यह भी निश्चय किया कि भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी जैनधर्मका प्रचार बढाना चाहिये । राजा संप्रतिने इस बातका बीडा उठाया और अपने सुभटोंको चीन, जापान, अरबिस्तान, तुर्किस्तान, मिश्र तिब्बत, अमेरिका मंगोलिया, जर्मन, फरान्स, आष्ट्रिया, इटली आदि प्रान्तों में भेज कर साधुत्वके योग क्षेत्र तैयार करवाया । बादमे जैन श्रमण भी उन प्रदेशों में विहार कर जैनधर्मका जोरोंसे प्रचार करने लगे । यही कारण हैं कि आज भी पाश्चात्य प्रदेशों में जैन मूर्तियों और उनके भरन खण्डहर प्रचुरता से मिलते है । भारतवर्षमें तो सम्राट्ने मेदिनी ही मंदिरोंसे मण्डित करवा दी थी। गांगांणीके मन्दिरकी प्रतिष्ठा के विषय में कविवर लिखते हैं कि वीर संवत् २७३ माघ शुक्ल अष्टमी रविवारके शुभ दिन सम्राट् संप्रतिने अपने गुरु आचार्य सुहस्तीसूरके कर कमलोंसे प्रतिष्ठा कर वाई, जिसका लेख उस मूर्ति के पृष्ठ भागमें खुदा हुआ हैं । कविवर समयसुन्दरजी महाराजने उस लेखको अच्छी तरहसे पढ कर ही अपने स्तवनमें प्रतिष्ठा शुभ मुहूर्तका उल्लेख किया है ।

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