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कैसे सोचें ?
ज्ञाताभाव अधिक पुष्ट होता जाएगा, वैसे-वैसे विचारों का प्रवाह मन्द और कमजोर होता जाएगा। जैसे-जैसे अनुभूति जागेगी, अनुभव का रस प्रबल होगा, विचार निर्बल होते जाएंगे। किन्तु पहले ही दिन सोचा जाए कि विचार आए ही नहीं, यह असंभव बात है। इसलिए ध्यान करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को कैसे सोचें, यह सीखना चाहिए। जो व्यक्ति इन कंटीले मार्ग में चलते-चलते इन नुकीले कांटों के बीच से परेशान होना नहीं चाहता, कांटों की चुभन से पीड़ित होना नहीं चाहता और निर्विघ्न रूप से चलना चाहता है, उसके लिए यह बहुत उपयोगी है कि वह कैसे सोचता है'-इस विज्ञान को सीखे।
__ हर आदमी सोचता है। कोई भी आदमी ऐसा नहीं मिलता, जो नहीं सोचता हो। पर प्रश्न है-कैसे सोचें ?
सोचना' एक कला है। हर आदमी इस कला को नहीं जानता। इस कला को कोई-कोई आदमी ही जानता है। जो इस कला को जान लेता है, उसका मार्ग बहुत साफ हो जाता है।
एक फकीर ने चर्चा के प्रसंग में कहा-मैंने हर व्यक्ति से कुछ न कुछ अवश्य ही सीखा है। एक व्यक्ति ने पूछ लिया--आपने चोर से क्या सीखा ? फकीर बोला-एक बार मैं चोर के घर ठहरा था। रात के समय चोर चोरी करने जाता। जब वह वापस लौटता, तब मैं पूछता-कुछ मिला ? वह बोलता 'कुछ नहीं मिला। आज खाली हाथ लौटा हूं, कल मिल जाएगा।' दूसरे, तीसरे दिन मैं यही पूछता गया। वह कहता-'आज कुछ नहीं मिला, खाली हाथ लौटा हूं। कल कुछ मिल जाएगा।' इस प्रकार पूरा एक महीना बीत गया। एक महीने तक चोर को कुछ नहीं मिला। मैंने सोचा-चोर रोज चोरी करने जाता है। सात-आठ घंटे बिताता है। अपनी नींद का मीठा समय खोता है। चोरी में कुछ नहीं मिलता। पूरा एक महीना नहीं तो कल अवश्य मिलेगा। मैंने सोचा-चोर में इतना धैर्य है कि वह खाली हाथ लौटने पर निराश नहीं हुआ। यह सारा देखकर, मैंने उससे यह सीखा कि भक्ति के मार्ग में कभी निराश नहीं होना है। अच्छा काम करते हुए कभी निराश नहीं होना है।
विचित्र है मनुष्य की प्रकृति । अच्छा काम करने वाला जल्दी निराश हो जाता है और बुरा काम करने वाला निराश नहीं होता। चोर, लुटेरे, डाकू कहां निराश होते हैं ?
यह एक तथ्य है, सचाई है। मैंने चिन्तन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि आदमी की जितनी गहरी आस्था बुराई में होती है, उतनी अच्छाई में नहीं होती। अच्छाई में उतनी गहरी आस्था संपादित करने के लिए बहुत साधना ही आवश्यकता होती है। जहां आस्था नहीं होती, वहां निराशा हो
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