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कैसे सोचें ?
सोचना मस्तिष्कीय चेतना का एक अंग है, इसलिए यह ज्योति का एक स्फुलिंग मात्र है, ज्योति की एकाग्रता नहीं है। जब दर्शन स्पष्ट होता है, प्रत्यक्ष दर्शन की स्थिति प्राप्त हो जाती है तब चिन्तन समाप्त हो जाता है।
ध्यान-साधना का लक्ष्य है कि साधक प्रत्यक्ष दर्शन की अवस्था तक पहुंचे, साक्षात्कार की भूमिकाओं को प्राप्त करे। जब साक्षात्कार होता है तब चिन्तन नीचे रह जाता है और अखंड ज्ञान ऊपर आ जाता है। किन्तु जब तक व्यक्ति शरीर से बंधा हुआ है, मस्तिष्कीय चेतना से जुड़ा है, उसको व्याप्त करता है और जब तक अतीन्द्रिय चेतना जागृत नहीं होती, तब तक चिन्तन करना भी आवश्यक होता है। उससे छुटकारा नहीं पाया जा सकता।
दो प्रकार के व्यक्ति चिन्तन-मुक्त होते हैं। प्रत्यक्षज्ञानी कभी चिंतन नहीं करता। अज्ञानी आदमी कभी चिन्तन नहीं करता। प्रत्यक्षज्ञानी को चिंतन करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि जो कुछ है वह उसके लिए प्रत्यक्ष है। अज्ञानी या मूर्ख आदमी चिन्तन करना जानता ही नहीं, उसमें चिन्तन की क्षमता ही नहीं होती।
मालिक ने नौकर से कहा-'वनस्पति घी की दो डिब्बे हैं। बगीचे में जाकर इस घी को कहीं छिपा दो।' नौकर डिब्बे लेकर बगीचे में गया। थोड़े समय बाद आकर बोला-'मालिक! मैंने घी तो बगीचे में छिपा दिया, अब डिब्बे कहां रखू ?' मालिक बोला-'अरे ! घी को कहां/कैसे छिपाया ?' नौकर बोला-'मालिक ! मैंने वृक्ष के पास एक गड्ढा खोदा, घी उसमें डालकर ऊपर से मिट्टी डाल दी। घी को छिपा दिया। किसी को पता ही नहीं चल पाएगा। अब बताएं, डिब्बे कहां रखू ?'
जो व्यक्ति सोचना जानता ही नहीं जिसमें चिन्तन की क्षमता विकसित ही नहीं है, वह अज्ञानी होता है। वह घी को छिपा सकता है गड्ढा खोदकर, पर खा नहीं सकता। वह घी को छिपा सकता है, पर डिब्बे को छिपाना नहीं जान सकता।
दो प्रकार के व्यक्ति चिन्तनशून्य होते हैं-प्रत्यक्षज्ञानी और अज्ञानी। यह कैसी विचित्र तुलना ! बहुत बार ऐसी विचित्र तुलनाएं होती हैं। मान और अपमान में सम रहने वाले दो ही व्यक्ति होते हैं। या तो वीतराग, इनमें सम रह सकता है या मूर्ख इनमें सम रह सकता है। कहां वीतराग और कहां मूर्ख! वीतराग व्यक्ति में असमानता के बीज नष्ट हो जाते हैं। समभाव उसका प्रखर हो जाता है। मूर्ख में मान और अपमान का विवेक कर सकने की क्षमता ही नहीं होती। वह दोनों में पृथक्करण नहीं कर सकता, इसलिए वह सम रहता है। कैसी विचित्र तुलना ! कैसा विचित्र संयोग !
हमारी जीवन-यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण घटक है-चिन्तन । एक ओर
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