Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 7
________________ ॥वांकी तीर्थमण्डन श्री महावीर स्वामिने नमः॥ ॥श्री पद्म-जीत-हीर-कनक-देवेन्द्र-कंचन-कलापूर्ण-कलाप्रभसूरिंगुरुभ्यो नमः॥ सम्पादकीय मंगलं पद्म-जीताद्या, मंगलं कनको गुरुः मंगलं सूरिदेवेन्द्रः, कलापूर्णोस्तु मंगलम् ।। _जंगम तीर्थ स्वरूप, अध्यात्मयोगी, पूज्यपाद, सद्गुरुदेव, आचार्यदेव श्रीमद् विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी को भला जैन जगत् में कौन नहीं जानते ? पूज्य आचार्यश्री पहले तो शायद कच्छ, गुजरात या राजस्थान में ही प्रसिद्ध थे, परन्तु अन्तिम छः वर्षों तक दक्षिण भारत में पूज्यश्री का पदार्पण होने से पूज्यश्री की पावन निश्रा में शासनप्रभावना की जो शृंखलाएं खड़ी हुई, उस कारण से पूज्यश्री भारतभर के जैनों के अन्तर में बस गये । गत 8 पूज्यश्री का प्रसन्नता से छलकता चेहरा । पूज्यश्री की प्रभु के प्रति असीम भक्ति । पूज्यश्री के हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति अपार करुणा । ॐ पूज्यश्री का आकर्षक व्यक्तित्व । ॐ पूज्यश्री का अद्भुत पुन्य । ॐ पूज्यश्री की अध्यात्म-गर्भित वाणी । ॐ पूज्यश्री का छ: आवश्यकों के प्रति अगाध प्रेम । पूज्यश्री का अप्रमत्त जीवन । इन सभी विशेषताओं के कारण जिस-जिस व्यक्ति ने पूज्यश्री को श्रद्धापूर्वक निहारा, वे उनके अन्तर में बस गये । पूज्यश्री का पुन्य इतना हैं कि जहां आपके चरण पडते है वहां मंगल वातावरण का सृजन हो जाता हे, भक्ति से वातावरण पवित्र बन जाता है और दूर-दूर से लोग आते ही रहते हैं । इस प्रकार की विशेषताएं अन्यत्र अत्यन्त ही कम दृष्टिगोचर होती हैं। कईबार तो इतनी अधिक भीड़ होती है कि लोगों के लिए दर्शन पाना भी कठिन हो जाता है। (वासक्षेप की तो बात ही छोड़िये) दर्शन, वासक्षेप आदि प्राप्त न होने के कारण लोगों को निराश

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