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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान आचार्य जिनवल्लभसूरिजी ने चैत्यवासियों के प्रतिकूल आचरण को जैन आगमों से बताकर, उनकी शंकाओं का समाधान करके, उनको शुद्ध चारित्रवान् बनाया, संसाररूपी भयंकर अटवी में भटकते हुए, भव्यजीवों के मन को आगमरूपी अमृत का पान करा कर सन्तुष्ट किया । वे श्री जिनवल्लभसूरि श्रेष्ठ सिद्धान्त के ज्ञान में शिरोमणि थे, महाक्षमावान थे। उस समय के अन्य शिथिलाचारियों से भव्य जीवों की रक्षा करने में शेषनाग के समान, सब उपसर्गो को सहन करनेवाले ऐसे उपर्युक्त गुणों के धारक उत्तम चारित्रवाले सद्गुरुओं की परतन्त्रता को जो स्वीकार करता है अर्थात् उनका सान्निध्य प्राप्त करता है वह सब प्रकार के दुःखों से रहित होकर सदा सुखी रहता है । अथवा ज्ञानादि लक्ष्मी के घर और क्षमाशील मुनियों में तिलक समान तीर्थंकरों द्वारा दिये हुए गणधर पदवाले श्री सुधर्मास्वामी अथवा इस स्तोत्र के कर्ता श्री जिनदत्तसूरि जयवंता बनो।
जिनदत्तसूरिजी ने अपने गुरुजनों की गुर्वावलि का बहुत ही संक्षेप में परन्तु भावपूर्ण शब्दों में गान किया है। श्री जिनदत्तसूरिजी ने इस कृति के माध्यम से गुरु परम्परा एवं गुरुजनों के गुणों का वर्णन एवं श्री जिनेश्वरसूरिजी के जीवन की ऐतिहासिक घटना का निरूपण किया है। अलंकार -
इस स्तोत्र को सुंदर बनाने के लिये अलंकारों की प्रचुरता मिलती है । श्लेष, उपमा, रूपक आदि अलंकारों का बड़ा ही सुंदर प्रयोग हुआ है। इन अलंकारों से आचार्यश्री की कृतियाँ बड़ी ही छटायुक्त हो जाती हैं। उदाहरण:रूपक अलंकार -
मयरहियं गुण-गण-रयण-सायरं सायरं पणमिऊणं।
सुगुरुजण-पारतंतं उवहिव्व थुणामि तं चेव ॥१॥ प्रस्तुत गाथा में सुगुरु को गुणसमूह रूपी रत्नों के सागर का रूप दिया गया है। अतः रूपक अलंकार है। (२) निम्महिय-मोह-जोहा, निहय-विरोहा पण?-संदेहा।
पणयंगि-वग्ग-दाविअ- सुह-संदोहा सुगुण-गेहा ॥२॥ इस गाथा में मोह-जोहा अर्थात् मोहरूपी योद्धा का वर्णन किया गया है। अतः रूपक अलंकार है।
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