Book Title: Jinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Author(s): Smitpragnashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 257
________________ २४० युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ८. ईर्यापथि को पढकर जिनेश्वर का पूजन आदि करते हैं । और ईर्यापथिकी पढ़कर ही दान आदि कर्म करते हैं। ९. विधि चैत्य नाम भी युक्त नहीं है। क्योंकि आगम में कहा कि लिगियों को निश्राकृत जिनचैत्य सहित (युक्त) १०. जितनी मात्रा में जल का उपभोग हो सकता है उतना ही जल आदि का उपभोग करना चाहिए । अचित्त जलाहारवाला गृहस्थ पानी का आगार रखता है। ११. 'उग्गेसूरे' या 'सूरेउग्गे' बोले तो कोई दोष नहीं है। एक युग और युगप्रवर इन शब्दों से दश या पांच अर्थ होता है, एक नहीं। १२. इन्द्र बत्तीस होते हैं चौसठ (६४) नहीं। जिनेश्वर की पूजा अष्टप्रकारी होती है। पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ के नवतिफणा* नहीं होती हैं। [नवति का अर्थ-(९०, २७)अथवा (९,३ नव, तीन)] १३. जिनप्रतिमाओं को क्षीर, घृत से स्नान उचित नहीं है। जिनप्रतिष्ठा द्रव्यस्त्व है, इसलिए गृहस्थ को उचित है। १४. कार्तिक अमावास्या की पश्चिम रात्रि में वीर प्रतिमा को स्नान पूजा होती है। वाजिंत्र, नृत्य और गीत होते हैं। १५. विधि चैत्य में (जिन भवन में)श्रावकों द्वारा लकुडारास (डांडियारास)किया जाता है। और शासनदेव को दोला (हिचका)दिया जाता है और जल क्रीडा की जाती १६. माघ में मालारोपण करने वाला सिद्धि को (साह का अर्थ करता या कहता है)प्राप्त करता है । रात्रि में मालाग्रहण से जिनस्नात्र में कौनसा दोष होता है ? १७. स्नात्रकार के द्वारा शीखाबन्ध, मुद्राकलश में वासक्षेप और आचार्य के बिना प्रतिष्ठा उत्सूत्र है। १८. गृहस्थ को भी दिशाबन्ध करनेवाला चैत्यवासी भी धर्मसाधक होता है। और साधुवेष में रहे हुए वे चैत्यवासी भी पूज्य हैं। १९. जिनबिंब अनायतन नहीं होता है। वे (द्रव्यलिंगि) जहाँ रहते हैं उसको मठ कहते है, ऐसे मठवासी को सुविहित साधु छोड़ देते हैं, लेकिन गृहस्थ नहीं छोड़ते। *टिप्पण :- विचारसागग्रंथ के अनुसार :- पार्श्वनाथ के नव, सात और पाँच फण और सुपार्श्वनाथ के तीन और पाँच फण होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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