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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
(४) रास की दो व्याख्याएं शारदातनय के भावप्रकाश के नवम अधिकार में दी गइ हैं उसके अनुसार
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"सोलह, बारह अथवा आठ नायिकाएं पिंडीबंध आदि विन्यास से नृत्य करें उसे रासक कहा जाता है | दूसरी व्याख्या के अनुसार - "क्षीर समुद्र प्राप्त अमृत का पान करके देवोने लताभेद्यक नृत्त तथा पिंडी श्रृंखलायुक्त भिन्न-भिन्न वाद्यों तथा लय ऐसे दो भेद से अलंकृत चारों तरफ से मंडलयुक्त होकर नृत्य किये उसका नाम रासक है! ""
(५) कुछ विद्वानों के अनुसार - " रसपूर्ण होने से यह रचना रास कहलाई" अपने मत के समर्थन में वे शालिभद्रसूरि विरचित “पञ्च पाण्डव्चरित रास" का उदाहरण देते हैं।
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"रासि रसाउलु
'चरिउ थुणीज्जइ ॥
(६) श्री प्रभुदास मित्तल रास की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि"रसानां समूहो रासः' अर्थात् रस का समूह ही रास है ।
श्री पोपट लाल शाह की भी यही धारणा है ।
(७) " निस्संदेह रास रसमय और रोचक काव्य का स्वरूप था। इसी से जैनों रसमयी वाणी में धर्मोपदेश देने के लिए "रासा" की रचना की ।'
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हुए
(८) श्री के. का. शास्त्री जी 'रास' शब्द की उत्पत्ति पर विचार करते अपनी पुस्तक "गुजराती साहित्यनुं रेखादर्शन" में लिखते हैं
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षोडश द्वादशाष्टो वा यष्मिन् नृत्यन्ति नायिकाः । पिण्डीबन्धादिविन्यासे रासकं तदुदाहृतम् ॥
लब्ध्वा दुग्धमहोदघौ सुरगणैः पीत्वमृतम् यस्तदा । चारीखण्डसुमण्डलैरनुगतः सोऽमतो रासकः ॥
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जैन काव्य दोहन- प्रस्तावना- पोपट लाल शाह - पृ. ७ मध्यकाल मां साहित्य प्रकाश- डा. चन्द्रकान्त मेहता,
भावप्रकाश, अधि-८, पृष्ठ२६३.
शारदातनयकृत भावप्रकाश, अधिकार, ९, पृ. २६५
पू. ३०७
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