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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
२०५ महाव्याधि है। यह संसार भी धतूरे के उस फूल के समान सुन्दर और आकर्षित करनेवाला है, जो पौधे में लगा हुआ मनोहर लगता है किन्तु जब उसका दुग्धपान किया जाता है, तब इन्सान भ्रमित हो जाता है। ठीक धतूरे के फूल के समान कुगुरु उपर से अच्छे लगते हैं। लेकिन उनके संग के परिणाम भयंकर आते हैं। जो सद्गुरुओं का सत्संग करते हैं वे परम पद को प्राप्त करते हैं। आचार्यश्री संसार की नश्वरता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं
इय मणुयत्तु सुदुल्लहु लद्धउ कुल-बल-जाइ-गुणेहिं समिद्धउ। दस दिट्ठत इत्थ कर दिन्ना
इहु निप्फलु ता नेहु म धन्ना ।। १३ ।। कुल, बल, जाति एवं गुणों से समृद्ध यह मनुष्यत्व बड़े दुःख से मिला है। इसे व्यर्थ में निष्फल मत होने दो।
मनुष्यजीवन अति दुर्लभ है । बड़े पुण्य से यह देह प्राप्त हुई है । साथ में आर्यदेश, उत्तम कुल, उत्तम (वंश)जाति प्राप्त हुई है। सब कुछ अच्छी तरह से मिलने के पश्चात् भी हम इसे सार्थक नहीं बना रहे हैं। क्योंकि मानवमन बड़ा ही चंचल है, आयुष्य क्षणभंगुर है । ये सब कुछ जानते हुए भी जिनेश्वर के बताये अनुसार मार्ग पर चलने वाले भाग्यशाली विरले ही होते हैं। संसारी पापी बहुत से तो ऐसे होते हैं कि वे सद्गुरु का उपदेश सुनते हैं, पढ़ते हैं फिर भी आचरण नहीं करते है। इस प्रकार आचार्यश्री ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति पर जोर देते हुए लोगों को सचेतन करने का प्रयत्न किया है।
पुनः आचार्यश्री सद्गुरु की पहचान के विषय में कहते है कि
जमणाययणु जिणेहि निदंसिर तं वंदहि बहुलोयनमंसिउ। जे रयणित्थि लोय ते थोवा
अइसउ न मुणवि अंतरु धोवा ॥ १९ ॥ तीर्थंकर देवों ने जो अनायतन बताया हैं, उसको बहुत लोग नमस्कार करते हैं। अनायतन को वंदन करते हैं। ठीक ही कहा है रत्नों के अर्थी वास्तविक ग्राहक थोड़े ही होते हैं।
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