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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १४०० प्रकरणों की रचना करके कीर्ति को प्राप्त की, ४६. जिन्होंने जिनेश्वर के सिद्धान्त द्वारा यतियों की शुद्ध क्रिया की परूपणा की ऐसे हरिभद्रसूरीश्वर मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ! ४७. आचारांग की विचारणा के वचन (वृत्ति)रूपी चन्द्र से अज्ञान अंधकार को नाश करने वाले शीलांकाचार्य चन्द्र समान हैं। ४८. और जिनेश्वर के चरण-कमल में भ्रमर सम, और भवरूपी शत्रुओं को भय पैदा करानेवाले, जीवों को अभयदान देने वाले उस शीलांकाचार्य को नमस्कार करता
४९. वीर जिनेश्वर के प्रशस्त तीर्थ में हुए और भव्य प्राणियों के लिए मनोहर, श्री वर्धमानसूरि को मैं वंदन करता हूँ। ५०-५१. अणहिलपुर पाटण में दुर्लभराजा की सभा में सिद्धान्त की युक्तियों से सुविहित मार्ग को प्रकट किया और अप्रतिबद्ध विहार से प्रतिपक्ष का घात किया ऐसे जिनेश्वरसूरि के चरणों में वंदन करता हूँ। ५२. यहाँ भी जिनेश्वर सूरि के मुख कमल में भ्रमर की तरह लीन हुए, ज्ञानगुण की लब्धी के धारक सिद्धान्त पराग (रहस्य)को जाननेवाले, ५३-५५. वीर जिनेश्वर के सिद्धान्तरूपी खजाने के रत्नों को जिन्होंने पुनः प्रकाशित किये और अविवेकी प्राणियों को नवांगी वुत्ति का दान दिया, ज्ञान चारित्रशाली आगम के अभ्यासी कोई भी गुरु संप्रति गुण तुलना में उनके समान दिखते नहीं हैं, और वृत्तिकार्य से प्रख्यात ऐसे अभयदेवसूरि ने भव कूप में पड़े हुए प्राणिगणों को हस्तालंबन देकर उद्धार किया। ५८-५९. जो साधु सम्यक् प्रकार से सिद्धान्त को पढते हैं, जानते हैं, बोलते हैं, और समय पर सिद्धान्त को जानकर क्रिया करते हैं। काल आदि के स्थान भूत-भविजन को बोध देनेवाले, भव का नाश करनेवाले ऐसे ज्ञानी गुरुभगवंत के ज्ञान गुण को नमस्कार करता हूँ, ६०. जिन्होने स्वपक्ष और परपक्ष के बारे में देवगत मिथ्यात्व और गुरुगत मिथ्यात्व को सद्गुरु की प्राप्ति से छोड़कर सम्यक्त्व को प्राप्त किया है। ६१. “निशंकित' आदि (सम्यक्त्व के गुणरत्नों के लिए रोहणाचल समान और (सम्यक्त्व)के पाँच दोष को नाश करनेवाले, निरुपम सुखरूपी वृक्ष के बीज समान दर्शन गुण को नमस्कार करता हूँ।
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