Book Title: Jinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Author(s): Smitpragnashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 248
________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान २३१ ६२-६३. इर्यासमिति आदि पाँच, मन, वचन और कायगुप्ति आदि तीन, कुड्यंतर, वसति, इन्द्रिय, निषिधा, पूर्वकथा, पूर्व क्रीडा, स्निग्ध और परिमित आहार, विभूषणा से जिसकी अष्ट प्रवचन माता दूषित नहीं हुई है ऐसे शीवश्री (मोक्ष)के आश्रयभूत चारित्र को त्रिविधेन नमस्कार करता हूँ। ६४. जिसका बाह्य और आभ्यंतर तप दुष्कर विधान रूप है, जिनकी सिद्धान्तानुसारी क्रिया-प्रवृत्ति है उसको नमस्कार करता हूँ। ६५. जो जयणा से आहार, पानी, वस्त्र और वसति (उपाश्रय)को शुद्ध करके अपनी शक्ति को प्रगट करते हुए विचरते हैं उसको नमस्कार करता हूँ। ६६. ऐसे पंच प्रकार के आचार को आचरने वाले जो कोई आचार्य, उपाध्याय और साधु है, उनको नमस्कार करता हूँ। ६७. जीवादि नव-तत्त्व के भेद को जाननेवाले, उसका उपदेश देनेवाले और सिद्धान्तानुसार स्वयं आचार को पालन करनेवाले, ६८. जिनाज्ञा से गर्व और प्रमाद को त्याग करने वाले, अनवद्य निष्पाप बोलनेवाले, चरण-करण में प्रयत्नशील, ६९. स्थिर चित्त से पूर्वाचार्यों के आचार से सिद्धान्तसूत्रों को जानकर द्रव्य आदि के निरपेक्ष और सापेक्ष पक्षों को कहनेवाले, ७०. महासत्त्वशाली वे गुरु, प्राणियों के मार्ग में आये या नहीं ऐसा जानकर देशना देते हैं और मार्ग में स्थिर करते हैं। ७१. और वे (गुरु)दुर्जन के दुर्वचनों को सुनकर भी अपने दिल में नहीं रखते हैं, कठोर वचन सुनने पर भी दूसरों को कठोर वचन कहते नहीं, ७२. यद्यपि कभी प्रमादवश स्वयं आचरण नहीं कर पाते तो भी जिनवचन को यथास्थित रूप से प्ररूपित करते हैं, ७३. जिन गुरुभगवंतो ने परम कणा से चतुरंग बल देकर मेरे सब कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट किये हैं, ७४. और सद्गुण संस्थित को भी उन्मार्ग से जो सन्मार्ग में लाते हैं, ऐसे श्री धर्मगुरु के वचन को मैं नमस्कार करता हूँ। ७५. इस तरह “शुभ गुणसंस्तव सप्ततिका' जो कोई पढता है उसको “सोमचन्द्र" अर्थात चन्द्र की ज्योत्स्ना की तरह भव भाखर के ताप को हर लेती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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