Book Title: Jinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Author(s): Smitpragnashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 236
________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान २१९ प्रधान लक्ष्य था जैन धर्म का प्रचार प्रसार करना- इसी कारण उनकी प्रत्येक कति उसी लक्ष्य की पूर्ति की और अग्नसर थी। १२ वीं शताब्दी में भारतीय जनता में भारतीय साहित्य में प्रधानतया तीन भाषाएँ प्रचलित थी- संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश । संस्कृत विद्वानों की भाषा थी। प्राकृत जैन धार्मिक साहित्य की प्रधान भाषा थी। अपभ्रंश भाषा उस समय की लोकभाषा थी। धर्मप्रचार से लिए प्रचलित लोकभाषा का उपयोग किया गया है। रचनाओं के माध्यम से इस बात का पता चलता है कि आचार्यश्रीका तीनों भाषाओं पर पूर्ण प्रभुत्व था। प्रत्येक भाषा की प्रेढ़ता, प्राञ्जलता, सरलता व सुबोधता स्पष्ट परिलक्षित होती है। तीनों भाषा में अनेक ग्रंथो की अनेक विषयों पर रचनाएं हैं। शैली सरल, सरल, सुबोध तथा प्रसादगुण परिपूर्ण है। सर्वथा समासाभाव या अल्प समासता आपकी रचनाओं में दृष्टिगोचर होती है। छन्दों में चर्चरी, पद्धटिका, आर्या, वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित आदि का प्रयोग पाया गया है। अपभ्रंश व प्राकृत की विशेषता एवं भाषाविज्ञान की दृष्टि से इनका महत्त्व अपने आप में अनूठा है। ____ अन्ततोगत्वा-दादासाहब युगप्रधान धर्मगुरु एवं धर्मशोधक थे। धर्म प्रचारप्रसार की दृष्टि से उन्होने काव्य रचना की थी। तथापि उनके ग्रन्थ काव्य-विशेषताओं से भी परिपूर्ण है। नाना अलंकारों, विशिष्ट शैलियों, प्रमुख वृत्तों और माधुर्य एवं प्रसाद गुणों से समन्वित उनकी रचनाएं जहाँ धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए भवसागर उद्धारक का कार्य करती हैं, वहाँ साहित्यिक दृष्टि से रसिक लोगों को रसार्णव में मग्न करने वाली भी हैं । एतदर्थ वे सर्वतोभावेन स्तुत्य हैं। दादा जिनदत्तसूरि इस प्रकार बारहवीं शताब्दी के खरतरगच्छ एवं जैन धर्म के ही नहीं अपितु भारतवर्ष के महान् धर्मपुरुषों में अपना अमर स्थान बनाये हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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