Book Title: Jinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Author(s): Smitpragnashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 175
________________ १५८ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान इस प्रकार उपरोक्त कृति की रचना बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध समय निश्चित् “युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरिजी " तत्कालीन सभी भाषाओं से परिचित अपितु सम्यक् ज्ञानयुक्त थे अथवा यह कहा जाय कि आप तत्कालीन भाषाविद् भी थे। प्रश्न यह उठता है कि संस्कृत एवं अन्य भाषाओं के पूर्ण ज्ञान के बावजूद भी आपने अपनी रचनाओं के लिए प्राकृत एवं अपभ्रंश को क्यों चुना ? उत्तर बिलकुल सीधा एवं सरल है कि तत्कालीन प्रजा की भाषा में यदि कोई उपदेश दिया जाय तो ही वह लोक-भोग्य बन सकता है । वहाँ तो विद्वत्ता दर्शाने की आवश्यकता नहीं । उस समय की सीधी एवं सरल भाषा अर्थात् प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं के सहारे ही लोगों को सही मार्ग प्रदर्शन की आवश्यकता थी। क्योंकि “सर्वोपरि भाषा वही है जो लोक-भोग्य है ।" इस प्रकार तत्कालीन वातावरण एवं परिस्थिति को देखते हुए आपने अपनी कृतियों के लिए प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं को सर्वश्रेष्ठ माना । यहाँ "उपदेश रसायन" को "अपभ्रंश" भाषा में रचकर आपने प्रजा एवं जैन धर्म को जो उत्तम योगदान दिया है उसके लिए यह समाज हमेशा ऋणी रहेगा। क्योंकि वह लोक - भोग्य होने के कारण सामान्य जन समुदाय भी आपके प्रदर्शित एवं उपदेशों पर चलकर एक उन्नत और सुदृढ़ धर्मयुक्त समाज की रचना कर सकता है। "उपदेश रसायन" कृति एक रास प्रकार का काव्य है - रास के उद्भव एवं विकास पर विचार करने से मालूम होता है कि यह रास अथवा रासो अपभ्रंश भाषा का ही सुपरिचित शब्द है । परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो रास शब्द का प्राचीनतम उल्लेख इसु की दूसरी शताब्दी के आस-पास की रचना हरिवंश पुराण में प्राप्त होता है। इससे पहले की रचना भासकृत बालचरित में हल्लीसक का उल्लेख है जो रास का एक प्रकार है । इस प्रकार पुराण ग्रन्थों में ब्रह्मपुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्मवैर्वत्त पुराण आदि में, काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ अभिनवगुप्त की भरतनाट्यशास्त्र की टीका में, भामह के काव्यालंकार में, भोजदेव के सरस्वतीकण्ठाभरण में, शारदातनय के भावप्रकाश में और विश्वनाथ के साहित्यदर्पण में रास का उल्लेख मिलता है । कहीं-कहीं रास के साथ हल्लीसक, छालिक्य, रासक्रीडा, रासगोष्ठि, रासनृत्य आदि शब्द भी मिलते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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