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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१११ प्रस्तुत कृति में (खंभात में रहे हुए)स्तम्भन पार्श्वनाथ और सत्यपुर (सांचौर)में विराजित भगवान महावीरस्वामी, उनके गणधर गौतमस्वामी, सुधर्मास्वामी तथा तीर्थंकरों की सेवा-सुश्रुषा करनेवाले सौधर्मेन्द्रादिदेव तथा धरणेन्द्र, गोमुखादि यक्ष एवं सिद्धायिका आदि शासन देवियाँ ये सभी चतुर्विध संघ में रहे हुए भव्यजीवों की समस्त विध्न - बाधाओं को दूर कर उनकी रक्षा करें, एवं सुख-शान्ति प्रदान करें ऐसी प्रार्थना करते हैं । (१ से ९)
आचार्यश्री गुरु-परम्परा का वर्णन करते हैं :
अज्ञानरूपी अंधकार को नाश करनेवाले सूर्यरूपी महाप्रभावक श्री वर्धमानसूरि, श्री जिनेश्वरसूरि, चतुर्विध संघ की वृद्धि करनेवाले अभयदेवसूरि, गुरुदेव श्री जिनवल्लभसूरि के चरणकमलों में वंदन करते हैं।
अन्त में आचार्यश्री कहते हैं कि भगवान महावीर के फरमाये हुए अथवा जिनदत्तसूरि के मार्ग को दिखलानेवाले, ज्ञानादि गुणों को जो धारण करते हैं तथा दूसरों को धारण कराते हैं, आचार्यश्री उन सभी साधर्मिक भाइयों को भी नमस्कार करते हैं।
इस स्तोत्र के शीर्षक से ही ज्ञात होता है कि जो शीघ्र ही उपसर्ग का शमन करें, उसी का नाम सिग्घमवहरउ है । अतः आचार्यश्री चतुर्विध संघ की रक्षा हेतु उपसर्ग का शमन करके, सुखशान्ति प्रदान करने की भावना व्यक्त करते हैं।
इस प्रकार इस स्तोत्र के द्वारा आचार्यश्री के अन्तरमन में विराजमान लोककल्याण एवं विध्न-विनाश की भावना का प्राकट्य होता है। अलंकार :
___ आचार्य जिनदत्तसूरिजी ने इस स्तोत्र को भी सुंदर बनाने हेतु अलंकारों का प्रयोग किया है। गुरु-गुणवर्णन में रूपक अलंकार की प्रतीति होती है। जैसे कि:रूपक अलंकार :उदाहरण:
सिरि थंभणयट्ठिय-पास-सामि-पय-पउम-पणय-पाणीणं ।
निद्दलिय-दुरिय-वंदो, धरणिंदो हरउ दुरिआई ॥४॥ यहाँ पर पय-पउम-“पदपद्म' अर्थात् कमलरूपी चरण-चरणकमल होने से रूपक अलंकार है।
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