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जिनवाणी विराट जगतके विषयमें अपना अभिप्राय प्रकट करनेका कप्ट नहीं उठाया। निर्माण करनेकी अपेक्षा तोड़फोड़ कर दवा देनेकी और ही उसकी अधिक प्रवृत्ति थी । वेद परभवको मानता है, चार्वाक उसे उड़ा देता है। कठोपनिषदकी द्वितीय वल्लीके छठे इलोकमे इस प्रकारके नास्तिकवादका परिचय मिलता है"न साम्परायः प्रतिभाति वालं प्रामाद्यन्तं विचमोहेन मूदम्। अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे"
इस श्लोकमें परलोकको न माननेवालोंका उल्लेख है। इसी उपनिषदकी छठी वल्लीके १२चे श्लोकमें नास्तिकताकी निंदा की है
मस्तीति त्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥ प्रथम बल्लीके वीसवे श्लोकमें भी इस प्रकारके अविश्वासी लोगोंका वर्णन है
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके॥ __वेद यज्ञ और कर्मकाण्डका उपदेश देते थे । नास्तिक लोग इस यज्ञ और क्रियाकाण्डके विषयमें केवल अंकाशील ही नहीं थे अपितु, इस विधि-विधान में कितनी विचित्रता भरी है यह भी बतलाते थे। उपनिषद् वेदके अंशरूप माने जाते है, परन्तु इन्ही उपनिषदोमें अनेक स्थलों पर वैदिक कर्मकाण्डके दोष बतलाए गए है । मै यहां केवल एक ही उदाहरण देता हूं--
प्रवाहते अहढा यक्षरूपा अष्टादशोकमवरं येषु कर्म। एतत् श्रेयो येऽभिनन्दतिमूढा जरामृत्युं ते पुनरेवापि यान्ति।
मुडकोपनिषद् १:२७