Book Title: Jinavani
Author(s): Harisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
Publisher: Charitra Smarak Granthmala

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Page 282
________________ जिनवाणी "जो समस्त पदार्थ स्वयमेव गतिमान होते है, उनकी गतिमें धर्म सहायता देता है। जिस प्रकार गमन करनेके समय मत्स्य जलकी सहायता लेता है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल-द्रव्य भी गतिमें धर्मकी सहायता ग्रहण करते है ।" वस्तुओके गतिकार्यमें धर्मके अमुख्य हेतुत्व और निष्क्रियत्वका समर्थन ब्रह्मदेव निम्न दृष्टान्तपूर्वक करते है। सिद्ध पूर्णतः मुक्त जीव है । उनके साथ संसारका कोई संबन्ध नहीं है। वे पृथ्वीके किसी भी जीवके उपकारक नहीं है। वे पृथ्वीके किसी भी जीवसे उपकृत नहीं होते। वे किसी भी जीवको मुक्तिमार्ग पर नहीं ले जाते । तथापि कोई भी भक्तिपूर्वक सिद्ध पुरुषकी भावना करे, यह विचार करके देखे कि, अनन्त ज्ञानादि विषयोंमें स्वभावतः वह भी सिद्धके समान ही है तो वह जीव भी धीरे धीरे सिद्धत्वप्राप्तिके मार्गमें आगे बढता है। यहां स्पष्ट है कि वास्तवमें तो जीव स्वयं ही मोक्षमार्गका मुसाफिर बना है, फिर भी इस बातसे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि सिद्ध पुरुष भी उसकी मुक्तिका कारण है। वास्तविक दृष्टिसे अथवा किसी प्रकार भी वस्तुओंको न चलाते हुवे भी ठीक इसी प्रकार धर्म उनकी गतिमें कारण अथवा हेतु है। - लोकाकाशके बाहर धर्मतत्त्वका अस्तित्व नहीं है। इसी लिए स्वभावतः ऊर्ध्वगति होने पर भी मुक्त जीव लोकान पर स्थित सिद्ध शिला पर ही रह जाते है और उससे ऊपर अलोक नामक अनन्त महाशून्य आकाशमें नहीं विचर सकते । लोकाकाश और अलोकाकाशकी भिन्नताके समस्त कारणोंमें एक यह भी है कि लोकमें धमकी अवस्थिति है। विश्वमें वस्तुओकी स्थिति और विश्ववस्तुओंकी नियमाधीनता गतिसापेक्ष है।

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