Book Title: Jinavani
Author(s): Harisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
Publisher: Charitra Smarak Granthmala

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Page 287
________________ जैन दर्शनमें धर्म और अधर्म तत्त्व २५१ 1 पड़ता है; इस लिये भी जीवोंमें एक नियम और शृङ्खलाका आविर्भाव होता है । हमें प्रतीत होता है कि जड़ जगतकी शृङ्खलाके सम्बन्धमें जैन दर्शन, आधुनिक विज्ञान सम्मत मतका स्वीकार करने में तनिक भी आनाकानी नहीं करेगा। वर्तमान युगके जड विज्ञानके आचार्योंके समान जैन भी कह सकते है कि, जड जगतमें जो श्रृङ्खला है वह जड पदार्थ के स्वाभाविक गुणोंमेंसे उत्पन्न हुई है । जडका संस्थान (Mass) और गति (Motion ) गुरुत्वाकर्षण (Law of gravity) के नियम और जडमें वर्तमान आकर्षणविकर्षण शक्ति (Principles of attraction and repulsion ) मेंसे ही जड जगतकी शृङ्खला उत्पन्न होती है। जड व्यापारों (Purely material phenomena) में जो नियम देखा जाता उसकी प्रतिष्ठामें धर्म, अधर्म, आकाश और कालका अस्तित्व अत्यधिक सहायक है; यह बात भी यहां मान लेनी चाहिये। जगतमें जीवोका अस्तित्व भी जडजगतकी श्रृंखलाका पोषक है; क्यों कि अनादि कालसे जो सब वद्ध जीव संसारमें भ्रमण कर रहे हैं, उनके प्रयोजन और अभीप्सा के अनुसार जड द्रव्य अथवा पुद्गल धीरे धीरे बदलते आए है । इस प्रकार मालूम होता है कि, वस्तुओं की गतिमें जो श्रृंखला है वह मूल तो वस्तुकी ही क्रियाशील प्रकृतिमें से ही उत्पन्न हुई है, और केवल धर्मतत्त्वका अस्तित्व ही इस श्रृंखलाकी प्रतिष्ठाका सहायक है ऐसा नहीं है। अधर्म, आकाशादि तत्त्व भी उसके परिपोषक है । तत्त्वार्थराजवार्तिककार विशेष रूपसे कहते है कि, पदार्थ स्वभावसे ही गतिस्थितिमें कर्तृत्वाधिकारी है । और वे धर्म अधर्मको 'उपग्राहक' कहते है। वे कहते हैं कि, अन्ध व्यक्ति चलनेमें लकड़ीका सहारा लेता है, 1

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