Book Title: Jinavani
Author(s): Harisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
Publisher: Charitra Smarak Granthmala

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Page 290
________________ २५४ जिनवाणी 1 वहां तो सिद्ध भी प्रवेश नहीं कर सकते ।) इससे ही मालूम होता है कि, धर्म सद्द्रव्य है, अलोकमें इसका अस्तित्व नहीं है, और लोकमें व्याप्त होकर लोकाकाश और अलोकाकाशमें एक बड़ी भिन्नता प्रतिपादित करता है । कोई कोई यह भी कहते है कि अदृष्ट ही गति - कारण है, धर्म द्रव्यकी सत्ता नहीं है । परन्तु याद रखना चाहिये कि चेतन जीव जो शुभाशुभ कर्म करता है, उसीके फलस्वरूप अदृष्टको कल्पना की गई है । दलीलके लिये यह मान भी लें कि चेतन जीवके गमनागमन कराने में अदृष्ट समर्थ है तो भी पाप-पुण्य कर्मोंके अकर्ता और तज्जन्य अदृष्टके साथ किसी प्रकारका संबन्ध न रखनेवाले जो जड पदार्थ हैं उनकी गतिका कारण क्या हो सकता है ? यह बात याद रखनी चाहिये कि, जैन मतानुसार धर्म, पदार्थोंको चलानेवाला कोई द्रव्य नहीं है, वह तो वस्तुओंकी गति -क्रियामें केवल सहायता देता है । गतिमें धर्मके समान एक निष्क्रिय कारण अवश्य मानना चाहिये । अदृष्टकी सत्ता मानें तो भी उससे धर्मको एक सत् और अजीव द्रव्य माननेमें कोई रुकावट पैदा नहीं होती । (२) अधर्म विश्व व्यापारके आधारकी खोज करते हुवे अनेक दर्शनोंको खास करके प्राचीन दर्शनोंको दो विरोधी तत्त्व मिले हैं। जरथुस्तप्रवर्तित धर्ममें हम “अहुरोमज्द" और "अहरिमान" नामक दो परस्पर विरोधी - हितकारी और अहितकारी - देवताओंका परिचय पाते हैं। प्राचीन न्याहूदी धर्म और क्रिश्चियन धर्ममें भी ईश्वर और उसका चिरकालीन - ---

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