Book Title: Jinavani
Author(s): Harisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
Publisher: Charitra Smarak Granthmala

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Page 292
________________ जिनवाणी २५६ नहीं है और लोकव्यवहारकी ओर भी दृष्टि रखते है वे गति और स्थितिमेंसे किसी एककी सत्ताको सर्वथा अस्वीकार करके दूसरेकी तात्त्विकता नहीं दिखला सकते। जैन अनेकान्तवादी हैं अतएव वे गति-कारण धर्म कौर स्थिति-कारण अधर्म इन दोनोंकी तात्त्विकताको स्वीकार करें तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। ____धर्मके कारण गति है; अधर्मके कारण स्थिति है; धर्म और अधर्म दानों सत् द्रव्य है, और अजीव द्रव्योंमें इनका समावेश होता है। दोनों ही लोकाकाशमें व्याप्त और सर्वगत व्यापक पदार्थ है। महाशून्य अलोकमें दोनोंका अस्तित्व नहीं है । “धर्म इससे कुछ विशेष है, वह नियमबद्ध गतिपरंपराका कारक या कारण है-जीव और पुद्गलकी गतियोंमें जो शृङ्खला वर्तमान है उसका कारण धर्म ही है "- यह मानना युक्तिसंगत नहीं है। जैन दर्शनके मतानुसार जीव और पुद्गल दोनों स्वयमेव ही गतिशील है और धर्म पूर्णतः निस्क्रिय पदार्थ है। अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि, धर्म विश्ववर्ती शृङ्खलाका विधायक है। अधर्म भी निष्क्रिय द्रव्य । है । जीव और पुद्गल स्वयमेव ही स्थितिशील है। यह नहीं कहा जा सकता कि, यदि जगतमें श्रृंखलावद्ध स्थिति हो तो उसका कारण अधर्म ही है । जीव और पुद्गलका स्वभाव ही उसका कारण है। धर्म और अधर्ममेंसे कोई भी जगतवर्ती नियमका कर्ता नहीं है। और इनमेंसे किसी एकको दूसरेका युक्तिसे पूर्वगामी (Logically prior) नहीं कह सकते । धर्म और अधर्ममेंसे कोई एक दूसरेके व्यापारकी प्रतिक्रिया करता है और इस चिरविरोध या

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