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जिनवाणी
और तीर्थकर ये दानों जीवन्मुक्त और सर्वज्ञ होते है, तथापि देहका संबन्ध रहता है । जीवन्मुक्त देहकी परवाह नहीं करता । उपरोक्त कथनानुसार वह देह हज़ारों सूर्यकिरणोंके समान उज्ज्वल और पवित्र होती है। इसके बाद जब अघाति कर्मका क्षय होता है तब पार्थिव देह भी गिर जाती है । इस अनिर्वचनीय अवस्थाको जीवकी परामुक्ति कह सकते है । उस समय जीवनकी सांसारिक आयुमर्यादा पूरी हो जाती है, देहकी निव्यपरिवर्तनशील उपाधि मिट जाती है। उच्च नीच गोत्रकी वेड़ी भी उस समय कट जाती है । अघाति कर्मका भय होते ही आत्मा पूर्ण स्वाधीन हो जाता है । यह मुक्ति ही प्राणिमात्रका स्वभाव और प्राणिमात्रकी अन्तिम परिणति अथवा उन्नति है । अघाति कर्मका क्षय होने पर सामान्य केवली और तीर्थङ्कर एक ही प्रकारका मुक्तिपद प्राप्त करते हैं । समाजमें सामान्य केवलीकी अपेक्षा तीर्थङ्कर भगवान् अधिक पूज्य माने जाते है, परन्तु मुक्तिपद प्राप्त होने पर सामान्य केवली और तीर्थकरमें किसी प्रकारका भेद नहीं रहता । मुक्तिपुरीमें ये दोनों समान है दोनों मुक्त हैं । इस प्रकार मुक्तिपदप्राप्त सर्वज्ञोको जैन सिद्ध कहते है
नट्ठकम्मदेद्दो, लोयालोयस्य जाणओ दट्ठा । पुरिसायारो अप्पा, सिद्धो झारह होयसिहरत्थो ।
- द्रव्यसग्रह ५१ ।
आठ प्रकारके कर्मोंका आभारी शरीर सिद्ध पुरुषोंको नहीं होता । सिद्ध लोकालोकका द्रष्टा और ज्ञाता होता है । निश्चयनयके अनुसार सिद्ध पूर्णत' विदेह होने पर भी व्यवहारवशत पुरुषाकार, आत्मप्रदेश