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जैनौका कर्मवाद कर्ममें लिस होता है। कर्मसे ही जीव बंधता है। कर्म ही संसारका मूल है। कर्म ही जीवकी प्रकृति और सांसारिक घटनाओंकी रचना करता है। कर्मका अभाव नैष्कर्म्य अथवा मुक्ति है। परामुक्ति प्राप्त होने तक जीवके साथ कर्मविपाक लगा ही रहेगा। जैन दर्शनमें इन सब तत्वों पर खूब विचार किया गया है और भारतके सभी प्राचीन दर्शनोंने उसे स्वीकार किया है। बौद्ध दर्शनने भी उसकी प्रामाणिकता मानी है। फर्मबाद भारतीय दर्शनोंकी एक विशिष्टता है। जैन दर्शनमें कर्मतत्वकी जो विस्तृत मालोचना मिलती है, उससे इतना तो मालम होता है कि गौतमबुद्ध और भगवान महावीरके पूर्व-शताब्दियों पहिले, भूतकालके स्मरणातीत युगमें, भारतवर्षमें अन्य दर्शनोंके समान जैन दर्शनने भी अच्छी प्रसिद्धि प्राप्त की होगी।