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जैनोंका कर्मवाद
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पूर्वक सह लेता है। किसी वस्तुकी आवश्यकता होने पर उसकी याचना करता है, परन्तु न मिले तो क्लेश नहीं धरता । ज्वर - अतिसार जैसे रोग हो जायं तो भी उद्विग्न नहीं होता । शरीरमें कांटा लग जाय तो दुःख प्रकट नहीं करता । शरीरकी मलिनताको सह लेता है । मानापमानको समान समझता है । ज्ञानके गर्वको छोड़ देता है । अपनी 1 अज्ञानताका भी खेद नहीं करता । अखंड साधना करते हुवे दैवी शक्ति प्राप्त न हो तो भी मोक्षमार्ग संबन्धी श्रद्धामें शंकाका प्रवेश नहीं होने देता । इस प्रकार मैने २२ परिसहोंका संक्षिप्त वर्णन किया है। परिसहको जीतनेसे कठिन मोक्षमार्ग सुलभ बनता है।
मुक्तिमार्गमें कण्टक स्वरूप इन परिसहोंका मूल कहां है ? कर्मबंघ ही इनका मूल कारण है । ज्ञानावरणीय कर्ममेंसे प्रज्ञा और मज्ञान उत्पन्न होता है | दर्शनमोहनीय कर्ममेंसे अदर्शन परिसह उत्पन्न होता है । अन्तराय कर्ममेंसे अलाभ परिसहका जन्म होता है । अचेलक, अरति, स्त्री, नैषेधिकी, आक्रोश, याचना, सत्कार - पुरुस्कारके मूलमें चारित्रमोहनीय कर्म है । शेष परिसह वेदनीय कर्मके विपाक है ।
कर्मका विपाक किसीको भी नहीं छोडता; जीवके पीछे ही पड़ा रहता है। जो साधक अभी १४ वे गुणस्थान पर नहीं पहुंचे उन्हें भिन्न भिन्न परिसह होने सम्भव है। जिन्हे संपराय - कपायोंकी विशेष संभावना - हो वे ' चादर संपराय ' माने जाते है। जैनाचार्य कहते हैं कि चादर संपराय साधकको इन २२ परिसहोंके होने की संभावना है। जिन साधकोंको अति अल्प मात्रामें लोभ-कषाय शेष रह गया है और बाकी सब कपाय नष्ट हो गये हैं वे " सूक्ष्म संपराय" माने जाते है। वे दशम गुणस्थान
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