Book Title: Jinavani
Author(s): Harisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
Publisher: Charitra Smarak Granthmala

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Page 262
________________ २२६ जिनवाणी (११७) नरकगत्यानुपूर्वी कर्म । ' (११८) तिर्यग्गत्यानुपूर्वी कर्म। (११९) मानुषगत्यानुपूर्वी कर्म । (१२०) पन्दरहवां अगुरुलघु कर्म-इस कर्मके कारण जीवका शरीर इतना अधिक भारी भी नहीं होता कि जिससे वह चलने फिरने योग्य न रहे और इतना अधिक हल्का भी नहीं होता कि जिससे वह अस्थिर रहे। (१२१) सोलहवां उपधात कर्म-इसके कारण जीवके शरीरमें ऐसे अंग उत्पन्न होते है कि जिनसे उसका अपना ही घात होता है। यथा मृगशरीरके लम्बे और खूब भारी सींग इत्यादि । (१२२) सतरहवां पराघात कर्म-इस कर्मके कारण जीव ऐसे अंग प्रत्यंग प्राप्त करता है कि जिनसे वह दूसरों पर आक्रमण कर सकता है। (१२३) अठारहवांआताप कर्म-इससे जीवको ऐसा उज्ज्वल शरीर प्राप्त होता है कि दूसरे उसे देखते ही चौधया जाते हैं। यथा सूर्यलोकमें ऐसे ही शरीरधारी जीव रहते हैं। १. पराघात नामकर्म-इस कर्मसे महान तेजस्वी आत्मा अपने दर्शनमानसे और वाणीके अतिशयसे महाराजाओंकी सभाके सभ्योंको भी चकित कर देता है, अपने प्रतिस्पर्धीकी प्रतिभाको कुठित कर देता है। २. आताप नामकर्म-इस कर्मसे प्राणियोंका शरीर शीतल होने पर भी उष्ण प्रकाशरूप ताप उत्पन्न करनेकी शक्तिवाला होता है। यह कर्म सूर्यविम्वमें स्थित एकेन्द्रिय जीवोंका ही होता है।

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