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जिनवाणी भगवानमें अचल श्रद्धा रखनेका नाम अर्हद्भक्ति है । (११) साधुसंघके नेता आचार्य, इनकी भक्ति करनेको आचार्य-भक्ति कहते है । (१२) धर्मका बोध करानेवालेको उपाध्याय और उपाध्यायकी भक्तिको उपाध्यायभक्ति अथवा बहुश्रुत-भक्ति कहते है। (१३) शास्त्र संबन्धी श्रद्धाका नाम प्रवचनभक्ति है। (१४) सामायिक, व्रत, पचखाण आदि दैनिक धर्मकार्यक अनुष्ठानको आवश्यक-अपरिहानि कहते है । (१५) प्रभावनाका अर्थ है मुक्तिमार्गका प्रचार करना । (१६) मुक्तिमार्गमें विचरण करनेवाले साधुओंके प्रति स्नेहभाव रखनेको प्रवचन-वात्सल्य कहते हैं। ___परनिंदा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणाच्छादन और असद्गुणोद्भावनासे जीव नीच गोत्रकर्म बांधता है। अन्यकी निंदाको परनिंदा, अपनी प्रशंसाको आत्मप्रशंसा, अन्योंके सद्गुणोंको छुपाना सद्गुणाच्छादन और नहीं होते हुवे गुगोंके आरोपण करनेको असद्गुणोद्भावन कहते है । परप्रशंसा, आत्मनिंदा, सद्गुणोद्भावन, असद्गुणाच्छादन, नीचैर्वृत्ति और अनुत्सेक, उच्च गोत्रकर्मके आस्रव कारण हैं। अन्योंकी प्रशंसाको परप्रशंसा, अपनी निन्दाको आत्मनिन्दा, अन्योंके सद्गुणोंके कथन करनेको सद्गुणोद्भावन और अपने गुण छुपानेको असद्गुणाच्छादन कहते हैं । गुरुजनोंकी विनयका नाम नीचैर्वृत्ति है और अपने उत्तम कार्योंके गर्व न करनेका नाम अनुत्सेक है।
अन्योंको दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यमें विघ्न उपस्थित करनेसे अन्तरायकर्म बंधते है। अर्थात् कोई दान करता हो, कोई लाभ उठाता हो, कोई अन्नादि वस्तुका भोग करता हो, कोई चित्रादि वस्तुका उपभोग करता हो, कोई अपनी शक्ति-वीर्य विकसित करता हो, इन