Book Title: Jinavani
Author(s): Harisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
Publisher: Charitra Smarak Granthmala

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Page 267
________________ जैनोंका कर्मवाद आठ प्रकारके कर्मोंका परास्थितिकाल और अपरास्थितिकाल जैनागमके अनुसार नीचे उद्धृत किया जाता है: ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मकी परा स्थिति-उत्कृष्ट स्थिति (त्रिंशत्) तीस कोटाकोटी सागरोपम है। मोहनीय कर्मकी परा स्थिति (सप्तति) ७० कोटाकोटी सागरोपम है। नाम तथा गोत्र कर्मकी परा स्थिति (विंशति )२० कोटाकोटी सागरोपम है। आयुषकर्मकी परा स्थिति (तयस्त्रिंशत) ३३ सागरोपम है। एक योजन व्यास ( Diameter) वाला और एक योजन गहरा कुंवा खोदा जाय । उसका घेरा लाभग ३,योजन होगा। इस कुंवेमें उत्कृष्ट भूमिमें उत्पन्न, सात दिनके भेड़के वालोंके छोटेसे छोटे अंश ट्रंस ढूंस कर भरे हो, और सौ सौ बरस बाद उस कुंवेसे एक एक बाल निकाला जाय, और इस प्रकार एक एक बाल निकालनेसे जितने समयमें कुंवा खाली होगा वह एक 'व्यवहारपल्य' कहलायगा। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि ४१३०५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२१९२०००००००००००००००००००० वर्षका एक व्यवहारपल्य होता है। असंख्य व्यवहारपल्यका एक 'उद्धारपल्य' और असंख्य उद्धारपल्यका एक 'अद्धापल्य' होता है। १० कोटाकोटी अद्धापल्यका एक सागरोपम होता है। यह उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन हुवा। अब अपरा अर्थात् जघन्य स्थिति लीजिये

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