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जिनवाणी (१४८) बयालीसवां तीर्थंकरकर्म-इससे तीर्थकरत्व प्राप्त होता है। - कर्मके दो भेद : घाती और अघाती। घाती कर्ममें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चारका समावेश होता है। मतिज्ञानावरणीय आदि अवान्तर मेदोकी गणना करनेसे ४७ भेद, होते है। अघातीके भी चार भेद है : वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष । सातावेदनीय आदि भेदोंके हिसाबसे अघाती कर्मके १०१ भेद है। सारांशतः कर्मक प्रकार, प्रकृति अथवा भेद सब मिलकर १४८ प्रकार हो जाते है।
कर्मकी स्थिति __ जीव पदार्थको लगे हुवे कर्मके क्षय होनेका नाम निर्जरा है। निर्जराके अविपाक और सविपाक नामक दो भेद हैं। कर्मपुद्गलके फल देनेके लिये तैयार होनेसे पूर्व ही कठोर तपश्चर्यादिसे उसका क्षय कर देनेका नाम अविपाक निर्जरा है। यदि तपश्चर्यादिकी सहायतासे इस कर्मको क्षीण न कर दिया जाय तो वह जीवके साथ मिलकर, विविध फलोंका भोग कराता है और उसकी निश्चित मुद्दत पूरी होने पर जीवका त्याग कर देता है। इसका नाम सविपाक निर्जरा है।
जिस संसारी जीवको अविपाक निर्जरा नहीं, किन्तु सविपाक निर्जरा भुगतनी पड़ती है उसके साथ कौनसा कर्म कितने समय रहता है, इसका माप भी जैन शास्त्रोंने निकाला है। आचार्य इसे " स्थितिबन्ध" अर्थात् कर्मका स्थितिकाल कहते है। स्थिति दो प्रकारकी है(१) परा स्थिति (Maximum duration ) और (२) अपरास्थिति।