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जिनवाणी करनेका कष्ट मीमांसा दर्शनने नहीं उठाया। अत एव यहां हमें मीमांसा दर्शनके पेचीदा झगड़ेमें पड़नेकी आवश्यकता नहीं है।
'एकमेवाद्वितीयम् ! - ब्रह्म पदार्थ- के स्वरूपके निर्णयमें वेदान्त इतना मस्त हो गया है कि वह विचारजालसे बाहर ही नहीं निकल सकता। उसे कर्मके स्वभावका निर्णय करनेके लिये तनिक भी अवकाश नहीं है। सांख्य और योग दर्शनके विषयमें भी यही बात कही जा सकती है। वैशेषिक दर्शन भी कर्मकी तात्त्विक आलोचना नहीं करता । सभी दर्शन स्वीकार करते है कि, कमौके साथ कर्मफलका अच्छेद्य सम्बन्ध है।
और प्राक्तन कर्मके प्रतापसे ही जीव वर्तमान अवस्था प्राप्त करता है, परन्तु इस विषय पर सम्यक् रीतिसे किसीने भी विचार नहीं किया।
न्याय दर्शनने कर्भके स्वरूपका निर्णय करनेका कुछ प्रयत्न किया है। बोद्ध धर्मके मूलमें कर्मतत्व ही मुख्य है ऐसा कहे तो अयुक्त न होगा। जैन दर्शनमें कर्मकी प्रकृति और भोगीक संबन्धमें अत्यन्त विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। हम यहां न्याय, बौद्ध और जैन इन तीन दर्शनोंकी तुलनात्मक विवेचना करनेका यत्न करेंगे।
कर्मके साथ कर्मफलका सम्बन्ध किस प्रकार स्थापित हुवा यह प्रश्न न्याय दर्शनकारके मनमें अवश्य उत्पन्न हुवा था। कर्म पुरुषकृत है इस बातकी भी उसे खबर थी। कर्मका फल अवश्यम्भावी है, इससे गौतमने इन्कार नहीं किया। पर उसे यह भी मालूम था कि कई वार पुरुषकृत कर्म निष्फल चला जाता हो । यहां एक उलझन आ पडी। गौतमके मनमें स्वभावतः ही यह प्रश्न उत्पन्न हुवा कि, पुरुषकृत कर्म स्वयं ही कर्मफल किस प्रकार दे सकता है।