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जैन पर्शनमें फर्मवाद है । वेदनासे तृष्णा, तृष्णासे उपादान, उपादानसे भव, भवसे जन्म और जन्मसे वार्द्धक्य, मरण, दुःख, अनुशोचना, यातना, उद्वेग और नैराश्य आदिका जन्म होता है। दुःख तथा यन्त्रणाका चक्र इसी प्रकार चलता रहता है।"
बौद्ध मतानुसार संसार एक प्रवाह है। अनानसे संस्कार, संस्कारसे विज्ञान, विज्ञानसे नाम अथवा भौतिक देह, और फिर उत्तरोत्तर पटक्षेत्र, विषय, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जन्म, जरा, मृत्यु आदिका क्रमशः जन्म होता है। पारिमायिक शब्दोंको छोड़कर देखें तो बौद्ध मतानुसार संसार एक निरन्तर, सदा एक समान प्रवाहित रहनेवाला विज्ञान-प्रवाह है।
इस विवेचनसे भली भांति समझमें आ जायगा कि, संसारको कर्ममूलक माननेका बौद्धोंका क्या आशय है अर्थात् वे कर्म किसे कहते हैं। उनके कथनका भाव यह नहीं है कि कर्मका अर्थ केवल पुरुपकृत कर्म है। वे लोग कर्मको नियमके अर्थमें व्यवहृत करते हैं । बौद्ध मतानुसार कर्मका अर्थ है जगद्व्यापी नियम (Law) | इसे 'कार्यकारणभाव' मी कह सकते हैं। इस नियमके सम्मुख संसारके समस्त भाव, पदार्थ और व्यापार शिर झुकाते हैं। इन्हींसे संसार चलता है। संसार इस नियम पर ही प्रतिष्ठित है। ____ अब फलोत्पत्तिके विषयमें बौद्धोंका मन्तव्य देखना चाहिये। वे कहते है कि कर्म स्वाधीन है, वीचमें ईश्वरकी या अन्य किसीको आवश्यकता नहीं है। कर्म स्वयं ही फल उत्पन्न कर सकता है। एक