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जिनवाणी
पदार्थोंको अवकाश देता है, तो इसका उत्तर यह है कि आत्मा भी एक ही है और उसमें समस्त शरीरादि पदार्थ प्रदेश प्रदेन पर संयुक्त रहते है । नैयायिक कहते है कि कोई मरता है, कोई जन्मता है और कोई कामकाज में लगा रहता है; इन सब व्यापारांको देखकर आत्माकी विविधता माननी पड़ती है। जैन इसका उत्तर देते है कि, आत्माका सर्वगतत्व माननेसे, जन्म, मृत्यु आदि व्यापारके बारेमें आत्माका एकच ही सिद्ध होता है । कहीं घटाकाश उत्पन्न होता है तो अन्यत्र उसी समय दूसरे घटाकाशका विनाश भी होता है; शायद दूसरा एक घटाकाश पूर्ववत् रहता है। इन सब व्यापारोंको देखते हुवे भी यदि आकागमें बहुल्य माननेकी आवश्यकता नहीं पडती तो फिर जन्म, मरण आदि व्यापारोके कारण आत्मा एक होने पर भी उसमें वह सब बन सकता है । आत्माकी विविधता आप किस कारण मानते है ? कोई कहे कि विविधता न माने तो बन्ध, मोक्ष असंभव हो जाय, क्यों कि एक ही वस्तुमें एकसाथ वध, मोक्षरूपी विरुद्ध भावोंका एकसाथ समावेश नहीं हो सकता । पर इसके विरुद्ध यह तर्क किया जा सकता है कि, किसी एक घड़ेमें आकाशको बन्द कर देनेसे घटमुक्त आकाश रहेगा ही नहीं, और घटमुक्त आकाशके कारण घटबद्ध आकाश भी असंभव बन जाय | यदि आप कहेंगे कि प्रदेशमेदके कारण एक ही समय आकाशमें बन्धन और मोक्ष होना संभव है, तब फिर सर्वगत एक ही आत्मा में प्रदेशभेदकी कल्पना की जा सकती है और उसमें एक ही समयमें बन्धन और मोक्षका आरोपण हो सकता है । जैनाचार्यों के सम्पूर्ण कथनका आशय यह है कि, आत्माको सर्वगत और सर्वव्यापक