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जिनवाणी स्थानमें अन्य सिद्ध भी समा जाते है । इसे अवगाहना कहते है । सिद्ध एक दूसरेके वाधक नहीं होते । (७) ये अगुरुलघु होते हैं, सिद्धशीला पर त्वभावसे रहते है । (८) सिद्धका आठवां गुण अन्यावाध है। पार्थिव क्षणभंगुर सुखदुःखका नामोनिशान भी नहीं रहता। सारांश यह कि, सिद्ध अनंत, अनवच्छिन्न, अपरिवर्तित, असीम आनन्दमें वास करते है।
वेदपंथी तत्वदर्शी पुरुप धनधान्यादि ऐहिक सुखकी कामनासे ब्रह्मचिन्तन नहीं करते । बौद्ध भी सांसारिक कामनाओंकी तृप्ति के लिये बुद्धकी उपासना नहीं करते। इसी प्रकार जैन भी पार्थिव भोगको आगासे अर्हत्पूजन और उपासना नहीं करते । वेदपंथियोमें कुछ लोग ऐहिक लाभके लोभसे पृथक् पृथक् देवोंकी भक्ति करते है। बौद्धोमें भी कुछ ऐसे देव है और जैनोंने भी देवीदेव माने है। परन्तु वास्तवमें आत्मोनतिके लिये जिस प्रकार वेदपंथी ब्रह्मार्चन करते है, उसी प्रकार जैन भी अरिहंत और सिद्धादिका ध्यान धरते है, उसी (आत्मोन्नतिके) उद्देश्यसे पूजा, अर्चना, उपासना करते हैं। तीर्थकर कुछ ऐहिक सुर्ख नहीं देते । वे तो (सिद्ध वनकर) सिद्धशिला पर रहते है। सांसारिक विषयसि उनका किसी प्रकारका तनिक भी सम्बन्ध नहीं होता । अत एव किसीको यह आशा तो रखनी ही न चाहिये कि वे चमत्कार दिखला देंगे। जैन यह मानते है कि, तीर्थङ्करों और सिद्धिप्राप्त महापुरुषोंक गुणगानसे हम इन गुणोके पास पहुंचते हैं, वे गुण हमारे भीतर प्रवेश करते हैं और इस प्रकार आत्माका कल्याण होता है । सिद्ध एक उज्ज्वल आदर्श रूप है । इस आदर्शका ध्यान रखनेसे बंधनदशाग्रस्त जीव भी