________________
जैन दर्शनका स्थान अच्छा ज्ञान होना चाहिये। परन्तु यहां मै अधिक गहराई में जाना नहीं चाहता, केवल मूलतत्त्वोंक विषयमें ही एक-दो वात कहंगा।
जैन दर्शनके विषयमें आलोचना करनेसे पूर्व एक बात पर ध्यान देना आवश्यक है और वह यह कि जैमिनीय दर्शनको छोडकर प्रायः सभी भारतीय दर्शनोने, स्पष्ट या अस्पष्ट रूपसे, वैदिक क्रियाकलापमें अन्धश्रद्धा रखनेका प्रबल विरोध किया है। सच पूछो तो, अन्धश्रद्धाके विरुद्ध युक्तिवादका जो अविराम युद्ध जारी है उसीका नाम दर्शन है। प्रस्तुत लेखमे, इसी दृष्टि से भारतीय दर्शनोका निरीक्षण करना और उनके मुख्य-मुख्य तत्वोंकी आलोचना करनी है। यह याद रखना चाहिये कि भारतीय दर्शनोंका जो क्रम-विकास मैं यहां बतलाना चाहता हूं वह कालक्रमके अनुसार नहीं अपितु युक्तिवादकी दृष्टिसे . होगा (क्रोनोलॉजिकल नहीं, किन्तु लोजिकल होगा)।
अर्थहीन वैदिक कर्मकाण्डका पूर्ण प्रतिवाद चार्वाक सूत्रोंमें पाया जाता है। समाजमें इस प्रकारके विरोधी स्वतन्त्र सम्प्रदाय होते ही है। प्राचीन वैदिक समाजमें भी इस प्रकारके सम्प्रदाय मौजूद थे। वैदिक क्रियाकलापको कठोर भाषामें लताड बताना तो एक सहज बात है। विचारशील एवं तत्त्वजिज्ञासु वर्ग इस प्रकारके कर्मकाण्डसे अधिक समय तक सन्तुष्ट रह ही नहीं सकते । अत एव अर्थहीन क्रियाकांड - यथा यज्ञ सम्बन्धी विधि-विधान आदि के प्रति प्रबल विरोध उत्पन्न हो तो इसमें कोई आश्चर्यकी वात नहीं है। चार्वाक दर्शनका अर्थ ही वैदिक कर्मकाण्डका सतत विरोध है। चार्वाक दर्शनको एक विरोधी दर्शन कहना चाहिये । ग्रीसके सोफिस्टोके समान चार्वाकवादियोंने भी कभी