Book Title: Jinabhashita 2006 01 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 9
________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली की मूर्ति का मौन संदेश कहने को तो यह एक मूर्ति है, सत्तावन फुट उत्तुंग (ऊँची) है, नग्न दिगम्बर मुद्राधारी है, एक ही पहाड़ी को तराशकर बनाई गई है, अत्यंत मनोज्ञ, मनोहारी एवं कलात्मक है। कलात्मक भी ऐसी-वैसी नहीं बल्कि बेजोड़ / अनुपम । यदि आप एक बार देख लें तो देखते ही रह जाएँ, ठगे से आत्मविमुग्ध । कभी लगता है कि बाहुबली ही इतने सुंदर थे, कभी लगता है कि मूर्तिकार कितना कुशल था, कभी लगता है मूर्ति निर्माता चामुण्डराय कितना महान् था ! उत्तर अपने आप ही मिल जाता है बाहुबली तो महान् थे ही, तीर्थंकर पुत्र, कामदेव, तद्भवमोक्षगामी, 525 धनुष ऊँचा बलिष्ठ शरीर, उच्च विचार; सब कुछ तो था उनके पास । मूर्तिकार भी कम कुशल न रहा होगा, तभी तो वह, वह गढ़ सका जिसने उसे भी श्रद्धा का / प्रशंसा का पात्र बना दिया । अंग-अंग पर शोभित होती कलात्मकता बरबस आकृष्ट कर लेती है। लगता है पहले भरपूर देखूं और देखते-देखते जब नजरें थकने लगती हैं और तृप्ति नहीं मिलती (मन चाहता है कि एकटक देखेँ, सौधर्म इन्द्र की तरह हजार नेत्रों से देखूँ) तो मन कहता है पहले प्रणाम तो कर लो ! जीवन धन्य हो गया तुम्हारा जो प्रभु दर्शन का सौभाग्य मिला। मूर्ति निर्माता चामुण्डराय ने अपने नाम को सार्थक कर दिया, भावनाओं को साकार कर लिया और वह निधि पा ली; जिसे दान के सप्तक्षेत्रों में प्रथम स्थान दिया गया है-जिनबिम्बप्रतिष्ठा । युगोंयुगों तक गाथा गाई जाएगी बाहुबली तुम्हारी, तुम्हारी इस मूर्ति की । नतमस्तक 'हम तुम्हारे चरणों में । एक सामान्य मूर्ति और भगवान् की मूर्ति में बहुत अंतर होता है। जहाँ सामान्य मूर्ति रागमय होती है, वहीं भगवान् की मूर्ति वैराग्यमय होती है । श्रवणबेलगोला स्थित भगवान् बाहुबली की मूर्ति वैराग्यमय ही है। यह दर्शक - भक्तों के चित्त में अपने प्रति अनुराग बढ़ाती है-'गुणेष्वनुरागः भक्तिः ' ठीक ही तो कहा है। विशालता अहंकार का कारण बनती है; किन्तु इसमें विशालता है, अहंकार नहीं क्योंकि दृष्टि नासाग्र है। संसार है; रहे, जब तक संसार में रहना है; रहेंगे; किन्तु संसार में रचेंगे - पचेंगे नहीं; यही तो वैराग्य है। साँपों की बांबियाँ, लताएँ बता रही हैं कि आत्मध्यान में डूबा मानस इस बात की परवाह कब करता है कि शरीर कैसा है ? शरीर पर किसका वास है? प्रकृति के जीव अपना काम Jain Education International कर रहे हैं और आत्मप्रकृति में लवलीन व्यक्ति उनसे बेखबर है; यही तो है सच्चा वैराग्य । साँप संसारी को काटते हैं, चाहे वे साँप (जीव) हों या कर्मरूपी साँप; किन्तु वैरागी की शरण पाकर तो अठखेलियाँ करते हैं, अपने आपको सुरक्षित और सनाथ पाते हैं। वीतराग प्रभु की शरण है ही ऐसी; तभी तो कहा है अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ अर्थात् इस संसार में अन्य कोई शरण नहीं है, मेरे लिए तो आप ही शरण हैं; इसलिए हे जिनेश्वर ! करुणाभाव से मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए । कहते हैं कि अग्नि का संपर्क पाकर हवा भी गर्म हो जाती है और बर्फ का संपर्क पाकर शीतलता को प्राप्त होती है । यह मूर्ति भी सहस्राधिक वर्षों से ध्यानमग्न अपने वीतराग भावों के साथ स्थिर रहकर दसों दिशाओं से बहकर आने वाली हवाओं को अपने स्पर्श से पावन बनाकर प्राणीमात्र को नवचेतना, नवस्फूर्ति एवं नव ऊर्जा प्रदान कर रही है। शांति, समता, सर्वोदय, वीतरागता, वैराग्य, विशालता का जो परिवेश (परिमण्डल) इस मूर्ति के माध्यम से विद्यमान है, वह अपने इन्हीं गुणों को प्रसारित करता हुआ प्रतीत होता है। ऐसा कौन है जो इस मूर्ति की दिव्य आभा से अपरिचित रह सके ? इस मूर्ति के चमत्कारी स्वरूप की चर्चा सम्पूर्ण विश्व में होती है। पक्षी भी इस मूर्ति की पूज्यता से परिचित हैं। इसीलिए वे गगन विहार करते समय भूलकर भी इस प्रतिमा पर वीट नहीं करते। कितने पुण्यशाली हैं वे पक्षी जो भगवान् बाहुबली के मस्तक को निकट से देख पाते हैं/ प्रणाम कर पाते हैं। बाहुबली का स्पष्ट संदेश है- 'हम किसी से कम नहीं, हमसे कोई कम नहीं। फिर भी निर्दोषता इतनी की अहंकार दूर-दूर तक नहीं। कहते हैं लघुता से प्रभुता मिलती है । वे तो वैराग्य में इतने लघु एवं विनम्र बन गये थे कि उनके मन में इस बात का पश्चात्ताप विद्यमान रहता था कि भरतेश्वर को मुझसे दुःख पहुँचा है। अतः जब भरत ने उनकी पूजा की तो वे पश्चात्ताप से मुक्त हो गये और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया है। ( महापुराण ३६ / १८६) । बाहुबली ने पृथ्वी को 'पर' समझकर निर्माल्य की तरह त्याग दिया। वास्तव में For Private & Personal Use Only जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित / 7 www.jainelibrary.org

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