Book Title: Jinabhashita 2006 01 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ यही बात ‘मंगलाष्टक' के श्लोक नं. ७ में बताई है | नाभेपाद्यापसव्यपार्श्वविहितन्यासांस्तदाराधकान्। देखो - अव्युत्पन्नदृशः सदैहिकफलप्राप्तीच्छयार्चन्ति यान्॥१२७॥ ज्योतिय॑न्तर भावनामरगृहे ........... __अध्याय ३ जिनगृहाः कुर्वन्तु ते मंगलं ॥७॥ अर्थात्-ऋषभादि तीर्थंकरों के दायें पार्श्व में स्थित और चैत्य भक्ति में भी देखो - तीर्थंकरों के भक्त ऐसे शासनदेवों को कमजोर श्रद्धावाले ना भवनविमानज्योतिर्व्यन्तरनरलोकविश्वचैत्यानि। समझ लोग ही लौकिक फलाकांक्षा से पजते हैं। त्रिजगदभिवंदितानां वंदे त्रेधा जिनेन्द्राणाम्॥८॥ अव्युत्पन्नदृशां शांतक्रूरैहिकफलार्थिनां। प्रश्न-'जिनयज्ञ कल्प' अध्याय ४ श्लोक २१७ में लिखा मंत्रवीर्यप्रकाशार्थं मंत्रवादे स दर्शितः॥४३॥ है-सर्वाणि सैष निहतादू दुरितानि नोऽर्हन् । अर्थात्-वे अरहंत अध्याय ६ हमारे सब पापों को नष्ट करें। इसी तरह श्लोक २१६ में अर्थात् शासनदेवताओं की प्रतिष्ठापना मंत्रबीज के प्रकाशनार्थ शासनदेवता के लिए भी लिखा गया है कि-'निवारयंती | मंत्र शास्त्रों में ही बताई गई है, इनकी उपासना तामसी लौकिक दुरितानि नित्यं'। इससे शासनदेवता की पापनाशकता यानि फलाकांक्षी, जिन्हें सम्यक्त्व पैदा नहीं हुआ है, ऐसे अविवेकी पूज्यता सिद्ध होती है। मनुष्य ही करते हैं। उत्तर-श्लोक २१६ में 'दुरितानि' का अर्थ 'पाप' नहीं है | आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षपाहुड में लिखा है - किन्तु 'विघ्न' है। अर्थात्-शासनदेवता को विघ्ननिवारण करने | कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिङ्गं च वंदए जोदु। वाली बताया गया है, इसी से श्लोक २१७ की तरह निहतादू | ___ लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सोहु ।। ९२॥ (नाश करें) क्रिया का प्रयोग न करके श्लोक २१६ में अर्थात् भयादि से भी जो कुदेव, कुधर्म, कुगुरु की वंदना निवारयंती (दूर करने वाली) साधारण क्रिया का प्रयोग किया है। इसकी श्रुतसागरी टीका में यक्षादि को कुदेव के अन्तर्गत अगर शासनदेवता को पापनाशिनी माना जायेगा तो वह | लिया है और उन्हें अवंद्य बताया है। बिल्कुल संगत नहीं होगा क्योंकि इन देवों के स्वयं के ही सपरावेक्खं लिङ्ग राई देवं असंजदं वंदं। पाप (कर्मबंध) नष्ट नहीं हुए हैं तो ये दूसरों के पाप कैसे नष्ट । मण्णइ मिच्छादिट्ठी णहु मण्णइ सुद्ध सम्मत्ती॥९३॥ कर सकते हैं। यह पापनाश अर्थ तो जिनेन्द्र के ही साथ अर्थात् कुगुरु, रागी देव और असंयमी को जो वंदनीय संगत होगा। शासनदेवता के साथ तो विघ्ननिवारण अर्थ ही | मानता है, वह मिथ्यात्वी है, शुद्धसम्यक्त्वी नहीं। संगत होगा।२१ ___ वृहद्र्व्य संग्रह गाथा ४१ की ब्रह्मदेवजीकृत टीका में आशाधर ने तो शासनदेवों को कुदेव और अवंद्य लिखा | लिखा है -"रागद्वेषोपहतार्तरौद्रपरिणतक्षेत्रपालचडिकादि है। देखो ‘अनगारधर्मामृत' अध्याय ८ - मिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवमूढत्वं न च ते देवा श्रावकेणाऽपि पितरौ गुरु राजाप्यसंयताः। किमपि फलं प्रयच्छन्ति। कथमिति चेत्? रावणेन रामलक्ष्मण कुलिंगिनः कुदेवाश्च न वंद्याः सोऽपि संयतैः॥५२॥ । विनाशार्थं बहुरूपिणी विद्या साधिता कौरवैस्तु पांडवनिर्मूलनार्थं (स्वोपज्ञ टीका-कुदेवाः रुद्रादयः शासनदेवतादयश्च) कात्यायनी विद्या साधिता कंसेन च नारायणनाशार्थं बढ्योऽपि साधिताः।"ताभिः कृतं न किमपि रामपांडवनारायणानां । तैस्तु यह श्लोक 'मूलाचार' अ. ७ गाथा ९५ के अनुसार बनाया गया है, इस गाथा की संस्कृत टीका में वसुनंदि सैद्धांतिक ने यद्यति मिथ्यादेवता नानुकूलिताः तथापि निर्मल सम्यक्त्वोपार्जितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्व निर्विघ्नं जातमिति॥ भी नाग यक्षादि समग्रदेव जाति को अवंद्य बताया है। __ अर्थात् रागीद्वेषी आर्त्तरौद्र परिणामी क्षेत्रपालादि मिथ्यादेवों ____ आशाधर ने 'सागारधर्मामृत' अध्याय ३ श्लोक ७ में की जो जीव आराधना करता है, वह देवमूढ़ है। ये मिथ्यादेव लिखा है कि-दार्शनिक श्रावक आपत्ति आने पर भी उसके कुछ भी लाभ नहीं पहुँचा पाते। यह कैसे? यह ऐसे किनिवारण के लिये शासनदेवता की कभी भी उपासना नहीं रावण ने राम-लक्ष्मण के विनाश के लिये बहुरूपिणी विद्या करता। सिर्फ पंचपरमेष्ठी की ही शरण ग्रहण करता है। सिद्ध की, कौरवों ने पांडवों को खतम करने के लिये कात्यायनी ( अहंदादिपंचगुरुचरणेषु अन्तर्दृष्टिर्यस्य स आपदा-कुलितोऽपि विद्या सिद्ध की, और कंस ने श्रीकृष्ण को मारने के बहुत सी दर्शनिकस्तन्निवृत्यर्थं शासनादेवतादीन् कदाचिदपि न भजते।) विद्याये सिद्ध की, किन्तु वे विद्यायें राम-पांडव-श्रीकृष्ण का प्रतिष्ठासारोद्धार में भी आशाधर ने लिखा है - 16 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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