Book Title: Jinabhashita 2006 01 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 27
________________ पं. सदासुखदास जी ने भी उक्त गाथा की स्वरचित | से जनमी है और इसका प्रायः सभी उत्तरवर्ती व्याख्याकारों टीका में आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग के विधान का उल्लेख नहीं किया। वे लिखते हैं- "बहुरि अल्पपरिग्रहकू धारती जे स्त्री तिनकै हू औत्सर्गिक लिंग व अपवादलिंग दोऊ प्रकार होय है। तहाँ जो सोलह हस्तप्रमाण एक सुफेद वस्त्र अल्पमोल का तातै पग की एडीसूं मस्तकपर्यन्त सर्व अंगकूं आच्छादन करिअर मयूरपिच्छिका धारण करती स्त्री.... ताकै.... आर्यिका का व्रतरूप औत्सर्गिक लिङ्ग कहिए।.... बहुरि गृह में वासकर, अणुव्रत धारण करि शील, संयम, संतोष, क्षमादिरूप रहना, यह स्त्रीनि के अपवादलिंग है। सो संस्तर में दोऊ ही होय । (भगवती आराधना/गाथा 'इत्थीवि य जं लिङ्ग' 83 / प्रका. - विशम्बरदास महावीरप्रसाद जैन दिल्ली) । ने 'अनुसरण किया है। उदाहरणार्थ सन् १९३५ ई. में स्वामी देवेन्द्रकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रंथमाला शोलापुर द्वारा प्रकाशित भगवती आराधना के हिन्दी अर्थकर्त्ता पं. जिनदास पार्श्वनाथ शास्त्री फडकुले ने तथा सन् १९७८ में जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर एवं सन् १९९० में हीरालाल खुशालचंद दोशी फलटण द्वारा प्रकाशित भगवती-आराधना के अनुवादक सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचंद्र जी शास्त्री ने पं. आशाधर जी का अनुसरण करते हुए 'इत्थीविय जं लिङ्गं दिट्ठे' गाथा के अर्थ में लिखा है कि भक्तप्रत्याख्यान करनेवाली आर्यिका एवं श्राविका को एकांत स्थान में मुनिवत् नग्नरूप धारण करना चाहिए । क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने भी जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश ( भाग ३ / पृ. ४१७) में ऐसा ही उल्लेख किया है। उपर्युक्त दस प्रमाणों से सिद्ध है कि इन सभी टीकाओं या अनुवादों में प्ररूपित उक्त धारणा भ्रांतिपूर्ण है। भगवतीआराधना में वर्णित उक्त गाथा की समीचीन व्याख्या श्री अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में की है। उसमें उन्होंने गाथा का यह अर्थ बतलाया है कि भक्तप्रत्याख्यानकाल में आर्यिका को एकांत या सार्वजनिक, दोनों स्थानों में वही साड़ीमात्र-परिग्रहरूप उत्सर्गलिङ्ग धारण करना चाहिए, जो वे भक्तप्रत्याख्यान के पूर्व धारण करती हैं तथा जो श्राविकाएँ अतिवैभवसम्पन्न, लज्जालु अथवा मिथ्यादृष्टि परिवार की हैं, वे सार्वजनिक स्थान में तो अपना पूर्वगृहीत अनेकवस्त्रात्मक अपवादलिंग ही ग्रहण करें, किन्तु एकांतस्थान उपलब्ध हो, तो आर्यिकावत् एकवस्त्ररूप उत्सर्गलिङ्ग धारण करें। अन्य श्राविकाओं को दोनों स्थानों में आर्यिकावत् उत्सर्गलिंग ही ग्रहण करना चाहिए । इस वक्तव्य में पं. सदासुखदास जी ने भगवती आराधना के अनुसार भक्तप्रत्याख्यानकाल में स्त्रियों के लिए उपर्युक्त दो ही लिंग बतलाए हैं, मुनिवत् नाग्न्यलिंग नहीं बतलाया। पंडित जी की यह व्याख्या मूल गाथा के अनुरूप है। मूल गाथा में भक्तप्रत्याख्यान के समय एकांत और सार्वजनिक स्थान का भेद किए बिना सभी आर्यिकाओं के लिए उत्सर्गलिङ्ग और सभी श्राविकाओं के लिए अपवादलिङ्ग ग्राह्य बतलाया गया है। उसमें महर्द्धिका आदि श्राविकाओं के लिए एकांतस्थान में उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करने का कथन नहीं है । इसका कथन महर्द्धिक आदि श्रावकों के लिए बतलाई गई विशेष लिंगव्यवस्था का अनुकरण कर टीकाकार अपराजितसूरि ने किया है। यह अनुसंधान दर्शाता है कि भगवती आराधना में आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय एकांत स्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का विधान होने की भ्रान्त धारणा पं. आशाधर जी की भ्रान्तिजनित व्याख्या आचार्य विद्यासागर वचनामृत ज्ञानवैराग्य शक्ति ऐसी शक्ति है जो किसी दूकान पर नहीं मिलती। वह गुरुकृपा एवं साधना से मिलती है। वैराग्य में रहकर श्रमण अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वे जंगल में भवन की अपेक्षा लाख गुना आनन्द का अनुभव करते हैं । वैराग्य और विवेक का बढ़ना आत्म विकास का कारण है। जब हमें आत्मतत्त्व की प्राप्ति की रुचि उत्पन्न हो जाती तब अनंत संसार सागर का नाश हो जाता है। सबसे बड़ा अध्यात्म है दूसरे के स्वामी बनने का प्रयास मत करो । Jain Education International ए/ २, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल- ४६२०३९, म.प्र. 'सर्वोदयादि पंचशतकावली व स्तुति-सरोज संग्रह ' से साभार For Private & Personal Use Only जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित / 25 www.jainelibrary.org

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