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बाहुबली निःशल्य थे
| कमण्डलु में भूमण्डल : अहिंसक अर्थशास्त्र
शंका : क्या बाहुबली के शल्य थी, इसीलिये उनके | "अत्थं अणत्थमूलं" (भगवती आराधना, १८०८) अर्थात् सम्यक्त्व में कमी थी?
धन सभी अनर्थों की जड़ है। समाधानः श्री बाहुबली जी सर्वार्थसिद्धि से चय कर | ___ "आयव्ययमुखयोर्मुनिकमण्डलुरेव निदर्शनम्।" उत्पन्न हुए थे। कहा भी है- आनन्द पुरोहित का जीव जो |
(आचार्य सोमदेवसूरि, नीतिवाक्यामृत१८/६,) पहले महाबाहु था और फिर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ | अर्थात् आय (आमदानी) एवं व्यय (खर्च) करने की था, वह वहाँ से च्युत होकर भगवान् वृषभदेव की द्वितीय / शिक्षा देने के लिए मुनिराज (दिगम्बर जैन साधु) के कमण्डलु पत्नी सुनन्दा के बाहुबली नाम का पुत्र हुआ था। महापुराण | को आदर्श बनाना चाहिए। अर्थात् जैसे मुनिराज के कमण्डलु पर्व १६ श्लोक ६ । जो जीव सर्वार्थसिद्धि से चय कर मनुष्य | में जल भरने का मुँह बड़ा होता है तथा खर्च करने का छोटा होता है, वह नियम से सम्यग्दृष्टि होता है। (धवल पु. ६ पृ. | होता है, उसी प्रकार आमदानी का स्रोत व्यापक हो तथा खर्च ५००)। अत: यह कहना कि श्री बाहुबली के सम्यक्त्व में | की मर्यादा रखें, तभी व्यक्ति, परिवार और राष्ट्र उन्नति कर कमी थी, ठीक नहीं है। तप के कारण श्री बाहुबली को | सकते हैं। आय से अधिक खर्च करनेवाले व्यक्ति सदैव कष्ट सर्वावधि तथा विपुलमती मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया था। पाते हैं। राष्ट्र, उद्योगपति एवं गृहस्थ, तीनों के लिए कमण्डलु (महापुराण पर्व ३६ श्लोक १४७ । अतः श्री बाहुबली के | का यह आदर्श अपनाना चाहिए। हमारा सुझाव है कि राष्ट्र शल्य नहीं थी क्योंकि "नि:शल्यो व्रती" ॥१८॥ ऐसा मोक्षशास्त्र की मुद्रा पर एवं वित्तमंत्री जी के कार्यालय में कमण्डलु का के अध्याय सात में कहा है। श्री बाहुबली के हृदय में | चित्र इसी अभिप्राय से होना चाहिए। विद्यमान रहता था कि 'भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त | धन के प्रति मर्यादा की शिक्षा ही व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र हुये हैं ', इसलिये भरत जी के पूजा करने पर उनको केवलज्ञान | को सुखी, संतोषी एवं उन्नतिशील बना सकती है। और उत्पन्न हो गया। महापुराण पर्व ३६ श्लोक १८६। । इसके लिए मुनिराज के कमण्डलु से शिक्षा ली जा सकती पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व, भाग १५.९० है। इसीलिए इसे अहिंसक अर्थशास्त्र भी कहा गया है।
प्रस्तुति : विकास जैन, अजमेर मृत्यु जीवन की अनिवार्यता
अरुणा जैन मृत्यु दस्तक दे रही है, और साँसे बाहर निकलने के मृत्यु जीवन की अनिवार्यता है और इसी सत्य से हमें अवगत लिए आतुर हैं। एक अकेली आत्मा को जानना ही धर्म है, कराने के लिए साधु-संत हमारे द्वार पर दस्तक देते हैं, ताकि
इस बात की सच्ची अनुभूति होती है सम्राट सिकन्दर को इनकी अंगुली पकड़कर हम परमात्मा तक पहुँच सकें। गुरु ___अपनी अंतिम सांसों में, लेकिन वक्त बहुत कम है। पश्चात्ताप की और परमात्मा की शरण ही सच्ची शरण है, क्योंकि यह
से मन द्रवित हो उठता है, आँखें भीग जाती हैं। जिस हिंसा हमें शिक्षा देती है कि हम भीतर जाती साँसों में निर्मलता भर से अर्जित धन को, वैभव को जीवन का लक्ष्य माना, आज लें और बाहर निकलती हुई सांसें हमें अहंकार और विकारों वह सब कुछ यहीं छूटनेवाला है। इसीलिए अश्रुपूरित नेत्रों से से मुक्त कर दें, ताकि हम अच्छा जीवन जी सकें और घोषणा करता है कि मेरा यह शरीर जो कुछ समय बाद शव अच्छी मृत्यु (समाधि-पूर्वक) पा सकें। मृत्यु हमारे जीवन बनने वाला है,जब भी लोगों के दर्शनार्थ रखा जाए या अंतिम- का लेखा-जोखा होती है।। संस्कार के लिए ले जाया जाए, मेरे दोनों हाथ कफन से पूज्य मुनिवर क्षमासागरजी ने कहा है कि 'हमारी मृत्यु बाहर रखें जाएँ, ताकि लोगों को अनुभूति हो सकेगी, इस हमारे जीवन को बताती है कि हमने कैसा जीवन जिया है।' बात की, कि इस दुनिया से सिर्फ रंक ही नहीं, राजा भी अच्छा जीवन जीना, और अच्छी मृत्यु पाना व्यक्ति की खाली हाथ जाता है।
बहुत बड़ी उपलब्धि है। कहने का अर्थ यही है कि मृत्यु जीवन का विराम है।
वाशी नगर, नई मुम्बई 42 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित
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