Book Title: Jinabhashita 2006 01 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 46
________________ स्त्रीपुंनपुंसकैस्तिर्यग्नृसुरैरष्ट ते कृताः। | जिनबिम्ब का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण शरीराचेतनात्वाभ्यामुपसर्गा दशोदिताः॥ ४२॥ | होता है। अर्थ- स्त्री, पुरुष और नपुंसक के भेद से तीन प्रकार के जिनेन्द्र के दर्शन से पाप संघातरूपी कुञ्जर के (घातिया तिर्यंच, तीन प्रकार के मनुष्य एवं स्त्री और पुरुष के भेद से | कर्मों के) सौ टुकड़े हो जाते हैं अर्थात् खण्ड-खण्ड हो जाते दो प्रकार के देव इन आठ चेतनों के द्वारा किये हुए आठ हैं, जिस प्रकार वज्र के आघात से पर्वत के खण्ड-खण्ड हो प्रकार के चेतनकृत, एक शारीरिक, कुष्ठादिक की वेदनाकृत | जाते हैं। और एक अचेतनकृत दीवाल आदि के गिरने से उत्पन्न सब २. श्री धवला पुस्तक-१०, पृष्ठ २८९ पर इस प्रकार मिलाकर दश प्रकार के उपसर्ग कहे गये हैं। कहा है-'जिणपूयावंदणणमंसणेहि य बहुकम्मपदेस प्रश्नकर्ताः सौ. वंदना जैन, सागर णिजरुवलंभादो। जिज्ञासा: यदि प्रथम गुणस्थानवी जीव बहिरात्मा है ___अर्थ- जिनपूजा, वंदना, नमस्कार से भी बहुत कर्मप्रदेशों और चतुर्थगुणस्थानवी जीव जघन्य अन्तरात्मा है, तो दूसरे | की निर्जरा होती है। और तीसरे गुणस्थानवी जीवों को क्या माना जाये? ३. श्री जयधवला पुस्तक-१, पृष्ठ ९ पर इस प्रकार कहा समाधानः उपरोक्त जिज्ञासा के समाधान में वृहद् | है-अरहंतणमोकारो संपहिय बंधादो असंखेजगण द्रव्यसंग्रह गाथा-१४ की टीका में इस प्रकार कहा है- 'अथ कम्मखयकारओ त्ति तत्थ वि मुणीणं पवुत्तिप्पसंगादो। त्रिधात्मानं गुणस्थानेषु योजयति। मिथ्यासासादन मिश्र उक्तं चगुणस्थानत्रये तारतम्यनाधिक भेदेन बहिरात्मा ज्ञातव्यः।' अर्थ अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयडमदि। मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य सो सव्वदुक्खमोक्खं, पावइ अचिरेण कालेण॥ न्यूनाधिक भाव से बहिरात्मा जानना चाहिये। अर्थ-अरिहंत नमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा __ भावार्थ- प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा है।। नाव उत्कृष्ट बाहरात्मा ह।। असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा का कारण है, उसमें भी मुनियों द्वितीय सासादन गुणस्थानवी जीव मध्यम अन्तरात्मा है | की प्रवृत्ति प्राप्त होती है। कहा भी है-जो विवेकी जीव तथा तृतीय मिश्र गुणस्थानवी जीव जघन्य बहिरात्मा है।। भावपूर्वक अरिहंत को नमस्कार करता है, वह अतिशीघ्र कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा १९३ की टीका में भी इसी प्रकार | समस्त दु:खों से मुक्त हो जाता है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता कहा है-'उत्कृष्ट बहिरात्मानो गुणस्थानादिने स्थिताः, द्वितीये मध्यमाः, मिश्रे गुणस्थानेजघन्यका इति । अर्थ- प्रथम गुणस्थान भावार्थ-यद्यपि अरिहंत नमस्कार से कुछ बन्ध भी होता में स्थित जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा, द्वितीय गुणस्थानवी जीव है तथापि उस बंध की अपेक्षा कर्म निर्जरा असंख्यातगुणी है मध्यम बहिरात्मा और तृतीय गुणस्थानवर्ती जघन्य बहिरात्मा इसीलिये अरिहंत नमस्कार करने वाला अतिशीघ्र मोक्ष को कहे जाते हैं। प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार इन परिणामों से बंध और प्रश्नकर्ता : राजेन्द्र जैन काला, जयपुर निर्जरा दोनों कार्य होते हैं तथा मोक्ष भी होता है। जिज्ञासा : क्या भगवान् के दर्शन, जाप, पूजन आदि से ४. दर्शन पूजन आदि शुभ कार्य हैं। इन कार्यों से होने मात्र शुभास्रव होता है, निर्जरा बिल्कल नहीं होती? वाले शुभ परिणामों द्वारा कर्मक्षय होता है, इस सम्बन्ध में श्री समाधान : वर्तमान में एकान्त का प्रचार करने वाले जयधवला पुस्तक १ पृष्ठ ६ पर इस प्रकार कहा है-सुह सुद्धकुछ लोग आपके प्रश्न के अनुसार ही मान्यता रखते हैं। परिणामेहिकम्मक्खया-भावे तक्खयाणु ववत्तीदो। उनका कहना है कि जिनपूजा, दर्शन आदि से मात्र पुण्यास्रव अर्थ-यदि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न होता है, निर्जरा बिल्कुल नहीं होती है। इस प्रश्न का उत्तर माना जाये तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता। (अर्थात् आगम के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, जो इस प्रकार है शुभ परिणामों से कर्म क्षय मानना आगम सम्मत है) १. श्री धवला पुस्तक-६ पृष्ठ ४२७-२८ पर इस प्रकार ५. श्री मलाचार में इस प्रकार कहा है-भत्तीए जिणवराणां कहा है-'जिणबिंबदंसणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्म-कलावस्स खयदंसणादो।दर्शनेन जिनेन्द्राणां खीयदि जं पुव्व संचियं कम्मं ॥७८ ॥अर्थ-जिनेश्वर की भक्ति पापसंघातकुञ्जरम्। शतधा भेदमायाति गिरिर्वजहतो यथा।'| रूप शुभभाव से पूर्व संचित कर्मों का क्षय होता है। अर्थ-जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्ति और निकाचित रूप ६. आचार्य कुन्दकुन्द ने भी भावपाहुड में इस प्रकार मिथ्यात्व आदि कर्मकलाप का क्षय देखा जाता है, जिससे | कहा है44/ जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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