Book Title: Jinabhashita 2006 01 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 40
________________ अहिंसक चूल्हे डॉ. जीवराज जैन भोजन पकाने व बनाने के लिए हम सभी अग्नि का | सौभाग्य व कर्त्तव्य बनता है कि वह इस तथ्य को समझे तथा प्रयोग करते आ रहे हैं। रसोईगैस, कोयला या लकड़ी को | इस विकल्प का ज्यादा से ज्यादा घरों में व सार्वजनिक जलाकर यह अग्नि पैदा की जाती है। कुछ घरों में विद्युत | स्थानों में उपयोग करें। मुझे तो लगता है कि जो श्रावक तन, हीटर या माइक्रोवेवहीटर से गर्मी पैदा करके भी भोजन | मन और धन से इसका सदुपयोग करते हैं, कराते हैं या बनाया जाता है। जैन मतानुसार 'अग्नि' और 'विद्युत' सजीव | अनुमोदना करते हैं, तो वे न केवल महाहिंसा से बचते हैं, एकेन्द्रिय जीव होते हैं। ये दोनों रूप सचित्त तेजस्काय की बल्कि अन्यों को इससे बचाने का पुण्य भी उपार्जित करते पर्याय मानी गई हैं। हैं। जैन दृष्टि से ये चूल्हे अहिंसक तो हैं ही, लेकिन साथ में इस प्रकार हर जैनी जानता है कि इनका प्रयोग करके | राष्ट्र और पर्यावरण के लिए भी बहुत उपयोगी हैं। क्योंकि भोजन बनाने में तेजस्काय के अनन्त जीवों की हिंसा होती| इनके उपयोग से आयात होने वाली रसोई-गैस की भारी है। एक दृष्टि से तो श्रावकों को खाना बनाना ही नहीं चाहिए। मात्रा में बचत होगी। सौर ऊर्जा हमें मुफ्त में मिल जाती है। लेकिन जीवनयापन के लिए इस हिंसा को 'अपरिहार्य' रूप | गैस या बिजली का खर्च बच जाता है। में मान ली गई है। क्योंकि बिना भोजन बनाये हमारा काम इसके अलावा गैस जलने से या बिजली पैदा करने में जो चल नहीं सकता। हमारा इससे कर्मबंध गाढ़ा नहीं हो, इसके | वायु-प्रदूषण होता है, वह समाप्त हो जाता है। इस तरह लिए कहा गया है (गीता में भी) कि भोजन बनाते वक्त सौर-चल्हा एक साफ-सथरा प्रदषण रहित चल्हा होता है। परोपकार की भावना रखिये, साधु-संतों आदि उच्च आत्माओं| अतः जीव-अजीव का चिंतन रखने वाले हर समाज को को परोसने की भावना रखिये। लेकिन यह स्पष्ट जान लें कि और विशेषकर जैनसमाज की. जो इसका इतना सक्ष्म विवेचन जब हम पीने के लिए जल गर्म करते हैं या भोजन बनाने के | करता है कि अग्नि को भी सचित्त तेजस्काय मानता है, निम्न लिए पकाने, सेकने, तलने व उबालने की क्रिया सम्पन्न | संकल्प लेना चाहिए कि करते हैं, तो अग्नि या विद्युत द्वारा की हुई इन साधारण ___ 1. वह ज्यादा से ज्यादा इसका उपयोग करके, अग्नि व क्रियाओं में 'महा-हिंसा' तो होती ही है। कर्मबंध भले ही | विद्युत का उपयोग घटायेगा। महाहिंसा का अल्पीकरण करेगा। गाढ़ा हो या न हो। तेजस्काय की महाहिंसा से बच नहीं | 2. इसके प्रचार प्रसार में अपना अधिक से अधिक सकते। जैनियों और अजैनियों के लिए भी सक्रिय सहयोग देगा। प्रश्न उठता है कि क्या इस महा-हिंसा से बचने का कोई 3. इन चूल्हों को अधिक विकसित करने के लिए कुछ अन्य विकल्प नहीं हो सकता है? थोड़ा आगमिक चिन्तन | शोध व परिष्कार की आवश्यकता है। उसके लिए समाज करने से पता चलता है कि 'सूर्य की किरणें' सचित्त नहीं | अपने संसाधन, महापुण्य उपार्जन के रूप में सहर्ष लगायेगा। होती है। लेकिन इन किरणों में प्रकाश के साथ-साथ गर्मी | जिससे इन चूल्हों की उपादेयता व कार्य-कुशलता में अपेक्षित (ऊष्मा) भी होती है। यदि इस ऊर्जा को केन्द्रित करके पानी | वृद्धि हो सके। वैज्ञानिक और टेक्नीशियन लोग इसमें अपनी उबालने या भोजन बनाने की प्रक्रियाओं में उपयोग किया | मिका निभा सकते हैं। जाये तो 'अग्नि' की महाहिंसा से आसानी से बचा जा सकता| यहाँ यह बात ध्यान में रखने की है कि हम सौर-ऊर्जा | को एकत्रित करके मात्र उसके ताप का सीधा उपयोग सौरआजकल बाजार में पानी उबालने के लिए तथा भोजन चूल्हों में करने की बात करते हैं। सौर-ऊर्जा को विद्युत या बनाने के लिए 'सौर-चूल्हे' उपलब्ध हो रहे हैं। इनमें | अग्नि के रूप में परिवर्तन करने की बात नहीं करते हैं। अग्निकायिक या विद्युतकायिक जीव पैदा नहीं किये जाते | क्योंकि हमारा उद्देश्य अग्नि और विद्युतकायिक जीवों की हैं। यदि हम इनका उपयोग करके गैस, कोयला या विद्युत | रक्षा करने का है। उनकी महाहिंसा से बचने का है। कई का उपयोग बंद या कम करते हैं तो अग्नि से होने वाली | लोग सौर-ताप से सौर-विद्युत पैदा करके या सौर-अग्नि भयंकर महाहिंसा से बच सकते हैं। अत: हर जैनी का | पैदा करके, उसका उपयोग करने का विकल्प की बात 38 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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