Book Title: Jinabhashita 2006 01 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 32
________________ श्रमण संस्कृति के उन्नायक पं. कैलाशचंद्र जी एवं स्याद्वाद महाविद्यालय स्याद्वाद महाविद्यालय जैसी गौरवशाली संस्था का जन्म एक रुपये के महादान से हुआ था । अध्यात्मप्रेमी ज्ञानपिपासु पूज्य गणेशप्रसाद वर्णी जी के जीवन में एक ऐसी घटना घटी :- जब वे युवावस्था में संस्कृत के अध्ययन हेतु काशी पहुँचे तब एक विद्वान् 'नैयायिक जीवनाथ शास्त्री' की फटकार सुनकर तिलमिला गए । उनका रोम-रोम कराह उठा, अंतरात्मा में हाहाकार मच गया। उन्होंने प्रतिज्ञा की जैसे भी हो बनारस में संस्कृत विद्यालय खुलकर ही रहेगा। उस समय वर्णीजी ने वटवृक्ष के नन्हें से बीज की तरह एक रुपये का झम्मनलाल | से दान प्राप्त किया। उस रुपये के चौंसठ कार्ड खरीदकर दूर-दूर तक अपनी व्यथा लिखकर भेज दी। इन्हीं पत्रों के माध्यम से स्याद्वाद पाठशाला का विद्याकल्पतरू स्थापित करके ही वर्णीजी ने चैन की सांस ली। भयंकर बाधाओं को सहकर भी उन्होंने अजातशत्रु बनकर समाज के अज्ञान अंधकार को दूर करने का असाधारण कार्य कर दिखाया और बहा दी ज्ञानगंगा भावी पीढ़ी के लिए । मूर्धन्य विद्वान् कवि श्री नीरज जी ने उस समय की काशी की स्थिति का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है: उस दिन हुई सगर्वा निज में पतित पावनी काशी, जिस दिन ' भागीरथ' गणेश ने स्वर्गों को ललकारा। गंगा के तट पर आ छोड़ी स्याद्वाद की धारा ॥ प्रसिद्ध जैनकवि सुधेश नागौद ने इस विद्यालय की गरिमा के स्वागत में लिखा था : तुम ज्ञान देवता के मंदिर, तुम सरस्वती के पुण्य गेह । तुम पंचम युग के समवशरण तुम भारत के अभिनव विदेह ॥ पण्डित कैलाशचंद्र शास्त्री ने इस स्याद्वाद पाठशाला के विषय में लिखा था- इसमें संदेह नहीं, कि स्याद्वाद महाविद्यालय काशी का इतिहास एक तरह से जैन समाज की शैक्षणिक प्रगति का इतिहास है । इस विद्यालय ने इन पचास वर्षों में विविध विषयों के हजारों विद्वानों को उत्पन्न किया है। जो काम सैकड़ों विद्यालय मिलकर नहीं कर सकते थे, वह काम एक अकेले स्याद्वाद महाविद्यालय ने इन पचास वर्षों में कर दिखाया। महापुरुषों का व्यक्तित्व 30 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित Jain Education International डॉ. श्रीमती रमा जैन कालजयी होता है, उसे न काल की छेनी से काटा जा सकता है, और न समय की राख उसे ढ़क सकती है। पूज्य गणेशप्रसाद वर्णी जी द्वारा आरोपित विद्याकल्पतरू के पौधे को सन् १९२३ से पं. कैलाशचंदजी ने माली बनकर सींचा उसकी रक्षा की और उसे वटवृक्ष का रूप प्रदान कर दिया । अस्वस्थ होने के कारण पंडित जी ने तीन-चार वर्ष का अवकाश ले लिया, पुनः सन् १९२७ से समाज के आग्रह पर प्रधानाचार्य का पद ग्रहण किया तथा छात्रों की चेतना के कण-कण में ज्ञान रश्मियों का प्रकाश भरना प्रारम्भ कर दिया। इस समय काशी का वातावरण पं. जी के व्यक्तित्व और योग्यता के विकास के लिए सर्वाधिक उपयोगी रहा। पं. जी ने अथक परिश्रम और अपूर्व आत्मीयता से छात्रों को सुयोग्य बनाने का दृढ़ संकल्प कर लिया। बचपन में दिगम्बर जैन बालाविश्राम, आरा आश्रम में मुझे छः वर्ष पढ़ाने वाले, गुरु डॉ. नेमिचंद्र ज्योतिषाचार्य ने पं. कैलाशचंद्र जी की प्रशंसा करते हुए लिखा था :- 'गुरु देव का हृदय नारियल के समान ऊपर से कठोर, पर अन्तस से छात्रों के प्रति ममता का अजस्र स्रोत । वे छात्रों के उतने ही हितैषी हैं, जितने पिता अपनी संतान के प्रति होते हैं।' समस्त धर्मों, पुराणों और ग्रंथों में जैन- अजैन सभी कवियों ने गुरु की महिमा का बखान किया है। बनारसीदास कहते हैं: संसार सागर तरण तारण गुरु जहाज विशैखिये । जग माहिं गुरु सम कहि बनारस और कोऊ न पेखिये ॥ सूफी संत जायसी ने भी सगुण निर्गुण परमात्मा के सच्चे ज्ञान को प्राप्त करने के लिए गुरु के रूपक द्वारा सुआ को मार्गदर्शक सिद्ध किया है - गुरु सुआ जैई पंथ दिखावा - विन गुरु जगत को निर्गुण पावा । महाकवि तुलसीदास ने भी गुरु के उपदेश बिना अज्ञान एवं मोहरूपी अंधकार मिटना असंभव बताया 1 वंदऊं गुरुपद कंज कृपासिंधु नर रूप हरि । महामोह तम पुज जासु वचन रवि कर निकर ॥ उप अधिष्ठाता दिगम्बर जैन गुरुदत्त उदासीन आश्रम सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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